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सोमवार, 31 जनवरी 2011

मधुमेह से बचाव एवं देखभाल

बचाव एवं देखभाल यूं की जाती है -

*
ब्लडसुगर को बिल्कुल सामान्य रखें
इससे माइक्रो अल्बुमीनुरिया या बढी हुई नेफरोपैथी की अवस्था को टाला जा सकता है। यह पता चला है विश्व में हुई इन महत्वपूर्ण शोधों से - 
डीसीसीटी (डायबीटीज कनट्रोल एवं कम्पलीकेशन ट्रायल), यू केपीडीएस (यूनाइटेड किंगडम प्रोस्प्रेक्टिभ डायबीटीज स्टडी), स्टोकहोम इन्टरवेन्शन स्टडी, कुआमाटो स्टडी। 
*
उच्च रक्तचाप का नियंत्रण
अगर मधुमेह के रोगी तो थोड़ा भी उच्च रक्तचाप है तो नेफरोपैथी होने की संभावना बढ जाती है। रक्तचाप को नियंत्रित कर हम उनका जीवन दीर्घ कर सकते हैं। टाइप वन मधुमेह में मरणदर को 94 प्रतिशत से घटाकर 45 प्रतिशत तक किया जा सकता है यदि रक्तचाप नियंत्रित किया जाये।
18
साल से ज्यादा के रोगियों में सिस्टोलिक रक्तचाप 130 एवं डायस्टोलिक 80 से कम रखने की हिदायत दी जाती है।
जो दवा सबसे महत्वपूर्ण है गुर्दो को बचाने में और जिसका इस्तमाल जिन्हें उच्च रक्तचाप नहीं है उन्हें भी करने की हिदायत दी गयी है, वह है ऐस इन्हीबीटर ग्रुप की (इनाप्रील, लिसिनोप्रील,ओलमीसारटन,टेलमीसारटन, आदि); इन दवाओं का इस्तेमाल अपने चिकित्सक के परामर्शॆ के बाद ही करें।
*भोजन  में प्रोटीन की मात्रा कम करें-
पहले के हुए शोधों के अनुसार (जानवरों में) प्रोटीन कम देने से गुर्दों में इनट्राग्लोमेरुलस प्रेशर कम पाया गया एवं नेफरोपैथी से बचाव की संभावना उजागर हुई है।(0.6 ग्राम प्रति के. जी. प्रतिदिन की मात्रा) नये शोधों के प्रकाश में बढी  नेफरोपैथी हुई  की अवस्था में 0.8 ग्राम प्रति.के.जी. प्रतिदिन के हिसाब से प्रोटीन देने की बात कही गयी है।
नियंत्रण के लिए  दो सबसे जरूरी बातें

अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन ने 2006 के सम्मेलन के बाद ब्लड शुगर नियंत्रण के मानकों को नये ढंग से पेश किया है। अब शुरूआती दौर में डायबिटीज के नियंत्रण के लिए जो दो सबसे जरूरी बातें है---- एक तो व्यापक व्यायाम और दूसरी मेटफारमीन दवा।
चिन्ता की बात है कि मरीज व्यायाम को आवश्यक नहीं मानते और कुछ दिन करने के बाद छोड़ देते हैं। मेटफारमीन दवा बाजार में ग्लुकोमेट, वालाफेज, या जोमेट के नाम से आती है। इस दवा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह लीवर से निकलने वाली अत्याधिक ग्लुकोज को रोक लेती है और मोटापे को काबू में रखती है। मटफारमीन के प्रयोग से ब्लड शुगर ज्यादा घटने का डर नहीं रहता।
छह बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

डायबिटीज से बचाव के लिए नये गाइड लाईन्स के अनुसार छह बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। 
1.
बाडी मास इन्डेक्स यदि 23 से ज्यादा है तो कम से कम अपना वजन सात प्रतिशत कम करें। 2. भोजन में कम से कम चर्बी का प्रयोग करें। 3. प्रोटीन की ज्यादा मात्रा नहीं ले। 4. भोजन में रेशे वाले पदार्थ खूब खाएं। 5. रिफाइन्ड भोज्य पदार्थो से बचे। 6. सप्ताह में कम से कम ढाई घंटे व्यायाम करें। नये गाईड लाईन्स में अल्कोहल लेने की वकालत नहीं की गई है। कुछ शोधो में यह अवश्य बताया गया है कि कम मात्रा में अल्कोहल लेने से डायबिटीज में बचाव होता है। हफ्ते में दो बार मछली खाने को भी महत्वपूर्ण माना गया है मगर तली मछली की जगह उसका झोल लेना ही ठीक रहता है। पर्याप्त मात्रा में फल खाना भी लाभकारी है। डायबिटीज से बचना सम्भव है बशर्ते आपको अपना लाइफ स्टाइल बदलना होगा। 
करो व्यायाम नहीं तो होगे नाकाम
डायबिटीज के मरीज को अलग से व्यायाम के लिए चिकित्सक को सलाह देनी चाहिए। मरीजों को यह समझना चाहिए कि बिना पर्याप्त व्यायाम के शरीर में इंसुलिन की नाकामी को दूर नहीं किया जा सकता। शरीर में ग्लुकोज इंसुलिन रिसेप्टर के द्वारा ही कोशिका में घुस कर उर्जा पैदा करता है। व्यायाम द्वारा ही नाकाम इंसुलिन सही से काम करने लगता है वह मासंपेशियों में भी इंसुलिन रिसेप्टर की संख्या भी बढ़ जाती है। जो लोग समय की कमी का बहाना बनाकर रोज व्यायाम नहीं कर पाते उन्हें यह समझना चाहिए कि जब उनका शरीर ठीक रहेगा तभी वे बेहतर काम कर सकते है। जो मरीज नियमित रूप से व्यायाम नहीं कर पाते उनके शरीर में धीरे-धीरे दवाईयां नाकाम होने लगती है। 
-दस बातें ,फिर आराम ही आराम


नवीनतम शोधों से पता चलता है कि मधुमेह के कारण होने वाले गुर्दें की खराबी को काफी हद तक टाला जा सकता है। इसके लिए आपको इन उपायों को अमल करना होगा -
  • शुरुआती दौर से ब्लड-सुगर का कठोर नियंत्रण करें। यह सही खा न-पान उपयुक्त व्यायाम, दवाइयाँ एवं इन्सुलीन के उचित प्रयोग द्वारा संभव है।
  • अपना वजन घटाएं।
  • नमक कम खाएं।
  • नियमित व्यायाम करें।
  • शराब न पीये और धुम्रपान न करें।
  • चिकित्सक के परामर्श के बाद एस -इन्हीबीटर ग्रुप की दवा का नियमित प्रयोग करे।
  •  हर हाल में अपना रक्त-चाप 120 से 80 के नीचे रखें। उच्च रक्तचाप का रहना मधुमेह के मरीजों में किडनी फेल्यर का महत्वपूर्ण कारण है।
एक शोध के अनुसार टाइप-1 डायबिटीज के जिन मरीजों का रक्तचाप सामान्य रखा गया उनकी ज्यादा दिन जीने की उम्मीद 45% से 94% तक बढ़ गयी। डायलायसिस एवं ट्रांसप्लान्ट्शन की दर 73% से 31% घट गयी।
डायबिटीज की सही देखभाल के लिए दस नियम हैं। 1. दवाओं में गिलीमीपराइड सबसे अच्छी मानी जाती है। इसे दिन में एक बार लेना चाहिए। 2. अपना ग्लायकोसाइलेटेड हिमोग्लोबीन 6.5 के नीचे रखे। 3. पाईगिलटाजोन दवा साथ में लेना जरूरी है। मगर हृदय फेल होने और शरीर में पानी रहने पर इसे न लें। 4. अगर ग्लायकोसाइलेटेड हीमोग्लोबीन 7.5 प्रतिशत से ज्यादा रहा तो इंसुलिन लेना शुरू कर दें। 5. ब्लड शुगर को सही ढंग से नियंत्रित रखे।6. अपना रक्तचाप 130.80 से कम रखे। 7. अपना लिक्विड प्रोफाइल हर हाल में सही रखे। 8. आंखों की जांच वर्ष में अवश्य कराए। 9. पैरों की देखभाल पर विशेष ध्यान दें। 10. आटोनामिक न्यूरोपैथी की भी जांच कराए। इन नियमों का पालन करने से डायबिटीज बीमारी के दुष्परिणामों का सामना मरीजों को नही करना पड़ता। 

डायबिटीज टेस्ट

ग्लायकोसालेटेड हीमोग्लोबीन टेस्ट - सबसे महत्वपूर्ण टेस्ट बन कर उभरा है। यह डायबिटीज की डायगनोसिस एवं कंट्रोल को जानने का सबसे अच्छा तरीका है। इसकी रिडिंग यानि 7 प्रतिशत कम है तो डायबिटीज का नियंत्रण ठीक चल रहा है। इसे हर तीन महीने पर कराना जरूरी माना गया है। नई तकनीक से मात्र 5 मिनट में इस टेस्ट की रिपोर्ट मिल जाती है।
है।

ग्लायकोसाइलेटेड हीमोग्लोबीन  सबसे अच्छा टेस्ट है नियन्त्रण जानने के लिए

डायबिटीज में ब्लड शुगर की मात्रा रोज ही बदलती रहती है। केवल एक अध्ययन से इसका सही जायजा लेना मुश्किल होता है लेकिन ग्लायकोसाइलेटेड हीमोग्लोबीन एक ऐसा टेस्ट होता है जिससे एक ही अध्ययन में ब्लड शुगर का नियंत्रण पता चल जाता है। आजकल अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन ने इसे हर तीन माह पर कराने का निर्देश दिया है। भारत में जागरुकता के अभाव में ऐसा नहीं हो पाता लेकिन यह आवश्यक है। अगर आपका ब्लड शुगर सात से आठ प्रतिशत से बीच है तो संतोषजनक और आठ से दस प्रतिशत होने पर मामला गम्भीर है। यह टेस्ट थोड़ा महंगा जरूर है लेकिन जब डाक्टर इसे करने को कहें तो इसे अवशय करा लें

क्या है माइक्रोअल्बुमिनुरिया?

-'माइक्रल टेस्ट' एक स्क्रीनींग टेस्ट है, इसे करना बहुत सरल है।
 -'रिएजेंट स्ट्रीप' माइक्रल टेस्ट द्वारा इसे सधारणतः किया जाता है। पेशाब में अल्बुमीन(प्रोटीन) की कितनी मात्रा निकल रही है, यही इसमें देखा जाता है।
-24 घंटे में सामान्य आदमी में 30 मि.ग्रा. से कम अल्बुमीन पेशाब में निकलता है। यदि आपके पेशाब में 24 घंटे में 30 मि.ग्रा. से ज्यादा अल्बुमीन जा रहा है तो माइक्रल टेस्ट पॉजीटीव आता है। स्ट्रीप टेस्ट से यदि पॉजीटिव रिजल्ट आता है तो इसे अन्य स्पेशिफिक जाँच द्वारा निश्चित करना जरुरी है।
-यदि आपको माइक्रोअल्बुमिनुरिया की अवस्था शुरु हो गयी है तो तुरंत सावधानी की जरुरत है। इस समय  से भी यदि इन उपायों का आप अनुसरण करें तो किडनी फेल्यर से बचने की काफी संभावना रहती है।
छह माह में तीन बार किये गए पेशाब की जाँच में यदि दो बार माइक्रोअल्बुमिनुरिया मिले तभी यह निश्चित होता है कि यह पैथोलाजिकल है। केवल एक बार स्कारात्मक हो तो यह समान्य कारणों से भी हो सकता है।
-माइक्रोअल्बुमिनुरिया का पता होते ही खास उपायों के द्वारा इस अवस्था को रोका जा सकता है। इस टेस्ट  के साकारात्मक होने का मतलब है कि आपको भविष्य में किडनी की खराबी की संभावना है।
क्लिनिकल  तौर पर पेशाब जांच में माइक्रो- अल्बुमिनुरिया की जांच से यह पता चलता है कि गुर्दो में नेफरोपैथी की अवस्था होने जा रही है । यदि पेशाब में 24 घंटे में 30 मि ग्रा से 300 मि. ग्रा. तक अल्बुमीन निकले तो इसे माइक्रो अल्बुमिनुरिया कहते हैं। सामान्य आदमी में 30 मि.ग्रा से कम अल्बुमीन 24 घंटे में पेशाब में निकलता है। यदि 24 घंटे में 300 मि. ग्रा. से ज्यादा अल्बुमीन निकले तो इसे क्लिनिकल अल्बुमीनुरिया कहते हैं
क्लिनिकल अल्बुमीनुरिया यह भी बताती है कि मरीज को हृदयआघात होने की संभावना ज्यादा हो गयी है। इसीलिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि टाईप- टू मधुमेह रोगी को माइक्रो-अल्बुमीनुरिया के स्टेज में जांच द्वारा पता कर लिया जाये और जरुरी बचाव के उपाय शुरू कर दिये जायें।
अल्बुमीनुरिया की जांच
पेशाब के सामान्य जांच में यदि अल्बुमीन नहीं है तो माइक्रो अल्बुमीनुरिया की जांच माइक्रल टेस्ट द्वारा करावें। (सुबह का पेशाब इस जांच के लिए उत्तम है। )


इस तरह की बीमारी को टाइप-1 से अलग करने के लिए निम्नलिखित जाँचों को किया जाता है।
1. सी-पेपटाइड लेवेलः
यह टाइप-2 वैराइटी नें 0.6 पीमोल/एम.एल. से ज्यादा होता है।
2. सीरम इंसुलीन लेवेलः
यह टाइप-2 में ज्यादा होता है।
3. गैड 65 एन्टीबाऑडी टेस्टः
ऑटोएन्टीबाऑडी टेस्ट टाइप-1 में पोजेटिव एस टाइप-2 में निगेटिव होता है।

प्री-डायबिटीज

आपको डायबिटीज है यदि
फास्टिंग सुगर- 126 मि.ग्रा.से है ज्यादा
पी.पी.सुगर(खाना के 2 घन्टे बाद)-200 मि.ग्रा.से है ज्यादा
आपको नही है डायबिटीज मगर आप सामान्य भी नहीं हैं
फास्टिंग सुगर-100 -126मि.ग्रा.

पी.पी.सुगर(खाना के 2 घन्टे बाद)-140-200मि.ग्रा.
यही है प्री-डायबिटीज की अवस्था
आपको  डायबिटीज नहीं हैं
फास्टिंग सुगर-100मि.ग्रा.से है कम

पी.पी.सुगर(खाना के 2 घन्टे बाद)-140मि.ग्रा.से है कम
प्री-डायबिटीज की अवस्था क्या खतरनाक है?
1.यह भविष्य में डायबिटीज होने की सूचना देता है।10 साल में 20-50 प्रतिशत लोगों को डायबिटीज हो ही जाता है।
2.
प्री-डायबिटीज में रहने वालों को भी डायबिटीज के दुष्परिणामों के होने का खतरा उतना ही रहता है।
इस अवस्था में क्या करना चाहिए?

यह एक गोल्डेन अवसर है।यदि इस समय बचाव के रास्तों को अपनाया जाये तो बीमारी को आगे रोका जा सकता है।
आपका बी.एम.आई. होना चाहिए
सामान्य
-
20 - 25
ओवर वेट
-
26 - 30
मोटापा
-
31 - 40
अति मोटापा
-
41 - 70
बी.एम.आई. का सामान्य से ज्यादा होना इन्सुलीन रेसिटेन्ट की अवस्था लाता है और मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। अपने चिकित्सक से इसके बारे में बात कीजिए।

वेस्ट-हीप रेशीयो ( WHR)

अपनी कमर के सबसे पतले भाग को इन्च में नापिए। फिर अपने कुल्हे के सबसे मोटे भाग को।

                               कमर की नाप इंच में
वेस्ट-हीप रेशीयो  = ---------------------------
                               कुल्हे की नाप इंच में
यह यदि पुरषों में 0.95 एवं महिलाओं में 0.8 से ज्यादा है तो मधुमेह होने का खतरा बहुत है।

कमर के घेरे का मापन और बिमारियों का खतरा


अधिक खतरा
अत्याधिक बढ़ा हुआ खतरा
पुरुष
कमर का घेरा 94 से.मी.
कमर का घेरा 102 से.मी.
स्त्री
कमर का घेरा 80 से.मी.
कमर का घेरा 88 से.मी.

अपनी बी.एम.आई.( BMI - Body Mass Index) एवं वेस्ट-हीप रेशीयो को अवश्य जानिए।

                          वजन (कि.ग्रा. में)
बी.एम.आई.  = -----------------------------
                      उचाई (मीटर वर्ग में)

मधुमेह के कारण

मधुमेह होता क्यों है?
           98% मधुमेह भारतीयों में टाइप टू वैरायटी का होता है यह 40 की उम्र के आसपास शुरु होता है।
       जो कारबोहाइड्रेट हम खाते हैं, वह ग्लुकोज बनकर रक्त में चला जाता है। यह शरीर के सेल (कोशिका) में पँहुचे इसके लिए इंन्सुलीन  नामक हारमोन की जरुरत होती है। इंन्सुलीन  के बिना रक्त से सेल के अन्दर ग्लुकोज जा ही नहीं सकता। यह इंन्सुलीन  पैंक्रियाज नामक ग्रन्थि के बीटा सेल्स से स्रावित होता है। आनुवांशिक एवं गलत खान-पान एवं शारीरिक व्यायाम के आभाव में बीटा सेल्स से इन्सुलीन स्रावित होने की क्षमता खत्म होने लगती है। तब इंन्सुलीन का शरीर में अभाव हो जाता है या जो इंन्सुलीन  है वह नाकाम हो जाता है। तब ग्लुकोज रक्त में बढता जाता है मगर सेल्स के अन्दर घुस नहीं पाता। यही मधुमेह की अवस्था।
मधुमेह मुख्यतः दो तरह का होता है।

टाइप-(I):
इसमें पैन्क्रियाज की बीटा कोशिकाएँ पूर्णतः  नष्ट हो जाती हैं और इस तरह इंन्सुलीन का बनना सम्भव नहीं होता है। जनेटिक, आँटो इम्युनिटी एवं कुछ वाइरल संक्रमण के कारण बचपन में ही बीटा कोशिकाएँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं।
यह बीमारी मुख्यतः 12 से 25 साल से कम अवस्था में मिलती है। स्वीडेन एवं फिनलैण्ड में टाइप-1 मधुमेह का खूब प्रभाव है। भारत में 1% से 2% केसों में ही टाइप-1 वेराइटी पाया जाता है।ऐसे मरीजों को बिना इंसुलीन की सूई दिए कोई उपाय नहीं है।

टाइप-(II):
भारत में 98% तक मधुमेह के रोगी टाइप-2 वैराइटी के हैं। और यही हमारी मुख्य समस्या है। ऐसे मरीजों में बीटा कोशिकाएँ कुछ-कुछ इन्सुलीन बनाती है। कुछ बना हुआ इंसुलीन मोटापे, शारीरिक श्रम की कमी के कारण असंवेदनशील हो जाता है। ऐसे मरीजों में ईलाज के लिए कई तरह की दवाईयाँ उपलब्ध है। मगर कई बार इंसुलीन भी देना पड़ता है।
टाइप-(II):
भारत में 98% तक मधुमेह के रोगी टाइप-2 वैराइटी के हैं। और यही हमारी मुख्य समस्या है। ऐसे मरीजों में बीटा कोशिकाएँ कुछ-कुछ इन्सुलीन बनाती है। कुछ बना हुआ इंसुलीन मोटापे, शारीरिक श्रम की कमी के कारण असंवेदनशील हो जाता है। ऐसे मरीजों में ईलाज के लिए कई तरह की दवाईयाँ उपलब्ध है। मगर कई बार इंसुलीन भी देना पड़ता है।
क्या बच्चों में टाइप-2 बीमारी हो सकती है।
इन दिनों शुरुआती दौर से ही व्यायाम के अभाव और फास्ट  फूड कल्चर के कारण बच्चों में टाइप-2 बीमारी होने लगी है।
  • यह भारत में खास कर हो रही है।
  • 15 साल के नीचे के लोग, खासकर 12 या 13 साल के बच्चों में यह हो रही है।
  • लड़कियों में ज्यादा है होने की दर।
  • खासकर मोटे लोगों में जिनका बी.एम.आई. 32 से ज्यादा है।
  • 60 से 70% केसों में चमड़े में खास काले रंग का दाग होता है जिसे एकैनथोसिस निगरिकेन्स कहते हैं, यह इंसुलीन की नाकामी का संकेत देता है।
  • इनके फैमली में(95% से ज्यादा) डायबिटीज होने की हिस्ट्री रहती है।
इस तरह की बीमारी को टाइप-1 से अलग करने के लिए निम्नलिखित जाँचों को किया जाता है।
1. सी-पेपटाइड लेवेलः
यह टाइप-2 वैराइटी नें 0.6 पीमोल/एम.एल. से ज्यादा होता है।
2. सीरम इंसुलीन लेवेलः
यह टाइप-2 में ज्यादा होता है।
3. गैड 65 एन्टीबाऑडी टेस्टः
ऑटोएन्टीबाऑडी टेस्ट टाइप-1 में पोजेटिव एस टाइप-2 में निगेटिव होता है।
मुख्य लक्षणः
ज्यादा पेशाब होना।           ज्यादा भूख लगना।          ज्यादा प्यास लगना।
असामान्य स्वास्थ्य का अनुभव होना      वजन का कमना।   कभी-कभी दोनों पैरों में लहर
कमजोरी महसूस करना          झिनझिनाहट या सुन्न होने का अहसास

जो लोग निम्नलिखित कोटि में आते है, सतर्क रहें और अपना ब्लड सुगर सालाना एक बार जाँच करातें रहें -
  • घर में मधुमेह की बीमारी हो।
  • वजन ज्यादा हो।(अपेक्षित वजन से अभी का वजन 20% ज्यादा हो या B.M.I. 27 kg/m2  से ज्यादा हो।
  • उम्र 35 साल की हो।
  • एच.डी.एल. कोलेस्टेरोल 35 से कम एवं ट्राइग्लायसेराइड 250 ग्रा.से ज्यादा हो।
  • जिन महिलाओं को प्रिगनेन्सी के दौरान सुगर बढा हुआ मिला हो या 9 पौंड से ज्यादा वजन का बच्चा पैदा हुआ हो।