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सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

थैलीसीमिया-लक्षण,बचाव एवं सावधानी

लक्षण
सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं।
बचाव एवं सावधानी
थेलेसीमिया पी‍डि़त के इलाज में काफी बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता होती है। इस कारण सभी इसका इलाज नहीं करवा पाते, जिससे १२ से १५ वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। सही इलाज करने पर २५ वर्ष व इससे अधिक जीने की आशा होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, रक्त की जरूरत भी बढ़ती जाती है।
• विवाह से पहले महिला-पुरुष की रक्त की जाँच कराएँ।
• गर्भावस्था के दौरान इसकी जाँच कराएँ
• रोगी की हीमोग्लोबिन ११ या १२ बनाए रखने की कोशिश करें
• समय पर दवाइयाँ लें और इलाज पूरा लें।
विवाह पूर्व जांच को प्रेरित करने हेतु एक स्वास्थ्य कुण्डली का निर्माण किया गया है, जिसे विवाह पूर्व वर-वधु को अपनी जन्म कुण्डली के साथ साथ मिलवाना चाहिये। स्वास्थ्य कुंडली में कुछ जांच की जाती है, जिससे शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़े यह जान सकें कि उनका स्वास्थ्य एक दूसरे के अनुकूल है या नहीं। स्वास्थ्य कुंडली के तहत सबसे पहली जांच थैलीसीमिया की होगी। एचआईवी, हेपाटाइटिस बी और सी। इसके अलावा उनके रक्त की तुलना भी की जाएगी और रक्त में RH फैक्टर की भी जांच की जाएगी।
इस प्रकार के रोगियों के लिए कितनी ही संस्थायें रक्त प्रबंध कराती हैं। इसके अलावा बहुत से रक्तदान आतुर सज्जन तत्पर रहते हैं।
शोध और विकास
थैलेसीमिया पर विश्व भर में शोध अनुसंधान अन्वरत जारी हैं। इन प्रयासों से ही थैलीसीमिया पीड़ितों के लिए एक दवाई अविष्कृत हुई थी। इस दवाई से बच्चों को अब इंजेक्शन के दर्द को नहीं झेलना पड़ेगा। जल्दी ही भारतीय बाजार में ये दवा आने वाली है, जिसे खाने से ही शरीर में लौह मात्रा नियंत्रित हो जाएगी। असुरां नाम की यह दवा पश्चिमी देशों में एक्स जेड नाम से पहले से ही प्रयोग हो रही है। इससे इलाज का खर्च भी कम हो जाएगा, किंतु इसके दुष्प्रभावों (साइड एफ़ेक्ट्स) में इससे किडनी प्रभावित होने का एक परसेंट खतरा बना रहता है। दिल्ली के गंगाराम अस्पताल के थैलीसीमिया इकाई के अध्यक्ष डॉ. वीरेंद खन्ना के अनुसार भारत में अतिरिक्त लौह निकालने के लिए दो तरीके प्रचलन में हैं। पहले तरीके में डेसोरॉल (इंजेक्शन) के जरिए आठ से दस घण्टे तक लौह निकाला जाता है। यह प्रक्रिया बहुत महंगी और कष्टदायक होती है। इसमें प्रयोग होने वाले एक इंजेक्शन की कीमत १६४ रुपए होती है। इस प्रक्रिया में हर साल पचास हजार से डेढ़ लाख रुपए तक खर्च आता है। दूसरी प्रक्रिया में कैलफर नामक दवा(कैप्सूल) दी जाती है। यह दवा सस्ती तो है लेकिन इसका इस्तेमाल करने वाले ३० प्रतिशत रोगियों को जोड़ों में दर्द की समस्या हो जाती है। साथ ही इनमें से एक प्रतिशत बच्चे गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। ऐसे में नई दवा असुरां काफ़ी लाभदायक होगी। यह दवा फलों के रस के साथ मिलाकर पिलाई जाती है और इसकी कीमत १०० रुपये प्रति डोज है।
मेरु रज्जू ट्रांस्प्लांट
थैलेसीमिया के लिये स्टेम सेल से उपचार की भी संभावनाएं हैं। इसके अलावा इस रोग के रोगियों के मेरु रज्जु (बोन मैरो) ट्रांस्प्लांट हेतु अब भारत में भी बोनमैरो डोनर रजिस्ट्री खुल गई है। मैरो डोनर रजिस्ट्री इंडिया (एम.डी.आर.आई) में बोनमैरो दान करने वालों के बारे में सभी आवश्यक जानकारियां होगी जिससे देश के ही नहीं वरन विदेश से इलाज के लिए भारत आने वाले रोगियों का भी आसानी से उपचार हो सकेगा। यह केंद्र मुंबई में स्थापित किया जाएगा। ऐसे केंद्र वर्तमान में केवल अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशो में ही थे। ल्यूकेमिया और थैलीसीमिया के रोगी अब बोनमैरो या स्टेम सेल प्राप्त करने के लिए इस केंद्र से संपर्क कर मेरुरज्जु दान करने वालों के बारे में जानकारी के अलावा उनके रक्त तथा लार के नमूनों की जांच रिपोर्ट की जानकारी भी ले पाएंगे। जल्दी ही इसकी शाखाएं महानगरों में भी खुलने की योजना है।

थैलीसीमिया: जन्मजात अनुवांशिक रक्त-रोग

थेलेसीमिया (अंग्रेज़ी:Thalassemia) बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिकता के तौर पर मिलने वाला जन्मजात अनुवांशिक रक्त-रोग है जिसके कारण तहत शरीर में हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है। इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है। इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है, जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है। यह दो प्रकार का होता है। यदि पैदा होने वाले बच्चे के माता-पिता दोनों के जींस में माइनर थेलेसीमिया होता है, तो बच्चे में मेजर थेलेसीमिया हो सकता है, जो काफी घातक हो सकता है। किन्तु पालकों में से एक ही में माइनर थेलेसीमिया होने पर किसी बच्चे को खतरा नहीं होता। यदि माता-पिता दोनों को माइनर रोग है तब भी बच्चे को यह रोग होने के २५ प्रतिशत संभावना है। अतः यह अत्यावश्यक है कि विवाह से पहले महिला-पुरुष दोनों अपनी जाँच करा लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत देश में हर वर्ष सात से दस हजार थैलीसीमिया पीडि़त बच्चों का जन्म होता है। केवल दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही यह संख्या करीब १५०० है। भारत की कुल जनसंख्या का ३.४ प्रतिशत भाग थैलेसीमिया ग्रस्त है। इंग्लैंड में केवल ३६० बच्चे इस रोग के शिकार हैं, जबकि पाकिस्तान में १ लाख और भारत में करीब 10 लाख बच्चे इस रोग से ग्रसित हैं।

थैलेसेमिया में आनुवांशिकता का ऑटोसोमल रिसेसिव पैटर्न होता है।
इस रोग का फिलहाल कोई ईलाज नहीं है। हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती है। रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, यकृत और फेफड़ों में पहुँचकर प्राणघातक होता है। मुख्यतः यह रोग दो वर्गों में बांटा गया है:
• मेजर थैलेसेमिया:
यह बीमारी उन बच्चों में होने की संभावना अधिक होती है, जिनके माता-पिता दोनों के जींस में थैलीसीमिया होता है। जिसे थैलीसीमिया मेजर कहा जाता है।
• माइनर थैलेसेमिया:
थैलीसीमिया माइनर उन बच्चों को होता है, जिन्हें प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है। जहां तक बीमारी की जांच की बात है तो सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है।
पूर्ण रक्तकण गणना (कंपलीट ब्लड काउंट) यानि सीबीसी से रक्ताल्पता या एनीमिया का पता लगाया जाता है। एक अन्य परीक्षण जिसे हीमोग्लोबिन इलैक्ट्रोफोरेसिस कहा जाता है से असामान्य हीमोग्लोबिन का पता लगता है। इसके अलावा म्यूटेशन एनालिसिस टेस्ट (एमएटी) के द्वारा एल्फा थैलीसिमिया की जांच के बारे में जाना जा सकता है। मेरूरज्जा ट्रांसप्लांट से भी इस बीमारी के उपचार में मदद मिलती है।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

दमा में सावधानी

दमा के रोगी रखे सावधानी


दमा के रोगी को हल्का भोजन करना चाहिए। भारी भोजन के सेवन से श्वास में कमी उत्पन्न होने लगती है।
रोगी को दबाव अर्थात तनाव और दृढ़ संवेग जैसे चिंता, डर आदि से बचना चाहिए। ये सभी दमे के दौरे को प्रेरित कर सकते हैं।
रोजाना साँस की कोई वर्जिश करें और सरसों के तेल से छाती पर मालिश करने से आराम पहुँचता है।
सोते वक्त रोजाना सिर के नीचे 3-4 तकिए रखकर सोने की आदत डालने से भी दमे के दौरे का असर धीरे-धीरे कम हो जाता है।
हल्की और जल्द हजम होने वाली चीजों जैसे मूँग और अरहर की दाल, तोरई, कद्दू वगैरह इस्तेमाल करें।
दमा रोग के लिए इन्हेलर भी बेहतर विकल्प है।
अस्थमा के मरीज को खुली और ताजी हवा में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताना चाहिए। इसी के साथ ही भरपूर रोशनी भी लेनी चाहिए। ताजे और स्वच्छ पानी का भी भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए।
हफ्ते में एक बार दमे के रोगी को उपवास जरूर रखना चाहिए।
दमा के रोगी को शरीर में एसिड पैदा करने वाली चीजें जैसे कार्बोहाइड्रेट, फैट्स और प्रोटीन का इस्तेमाल कम मात्रा में करना चाहिए।
दमा के रोगी को नाश्ते में मुनक्का का शहद के साथ इस्तेमाल करना चाहिए।
दोपहर और रात के खाने में कच्ची सब्जियाँ जैसे ककड़ी,टमाटर, गाजर और सलाद का इस्तेमाल करें। साथ ही एक प्याला पकी हुई सब्जियाँ और गेहूँ की रोटी भी ले सकते हैं।
रात का खाना ज्यादातर सूरज ढलने से पहले या फिर कभी-कभी सोने के दो घंटे पहले करने से इसका बुरा प्रभाव हाजमें पर नहीं पड़ता है।
अस्थमा के रोगी को अपनी भूख से कम खाना चाहिए। भोजन धीरे-धीरे और खूब चबाकर करना चाहिए।
दिन में 8-10 गिलास पानी जरूर पीएँ।
दौरे के वक्त में शुरूआती समय में रोगी को हर दो घन्टे में एक प्याला गरम पानी पीने को देते रहें।
इन सब पथ्यों के साथ रोगी को कुदरत के कुछ नियमों का पालन करना भी बेहद जरूरी है। रोगी को नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। धूल, मिट्टी और एलर्जी पैदा करने वाले कीटाणुओं से खुद का बचाव करना चाहिए। रोगी को सर्दी से बचना चाहिए और एलार्जिक फूड के इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए। इसी के साथ ही मानसिक चिन्ताओं से बचना चाहिए।


आपको एक जरूरी बात और बता दें कि अस्थमा की चिकित्सा में शहद बहुत ही फायदेमंद माना जाता है। अगर अस्थमा का रोगी एक जग में शहद भर लें और फिर उसके नजदीक जाकर साँस लें तो उसकी साँस की तकलीफ दूर होकर वह हल्का महसूस करेगा। कुछ वैद्य और यूनानी हकीम तो अस्थमा के इलाज के लिए एक साल पुराना शहद इस्तेमाल करने की भी सलाह देते हैं।

दमा के लिए हल्दी भी एक बहुत अच्छी दवाई मानी जाती है। दमा के रोगी को दिन में दो से तीन बार एक गिलास दूध में एक चम्मच हल्दी मिलाकर देने से रोग में फायदा होता है। इसका इस्तेमाल खाली पेट करना चाहिए।

अगर उपरोक्त नियमों का सही और योग्य रूप से अस्थमा के रोगी पालन करें तो वे अपनी जिंदगी को दूसरों की तरह ही खुशहाल और स्वस्थ बनाकर सफल जीवन जी सकते हैं।

दमा का प्राकृतिक उपचार

दमा का प्राकृतिक उपचार
दमा के प्राकृतिक उपचार में निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
सुस्ती या कमजोर निर्गमन अंगों को बल प्रदान करना। रोगी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए समुचित आहार कार्यक्रम अपनाना। शरीर का पुनर्निमाण करना अथवा शरीर की कमजोरी को दूर करना। योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना, ताकि भोजन ठीक तरह से हजम होकर शरीर को लगे। फेफड़ों को बल मिले, उनमें लचीलापन आए, पाचन क्रिया सुधरे और तेज हो तथा श्वास प्रणाली बलशाली हो। रोगी को एनीमा देकर उसकी आँतों की सफाई करना चाहिए, ताकि उनके भीतर विसंगति न पनप सके। पेट पर गीली पट्टी रखने से बिना पचे हुए खाद्य पदार्थ सड़ नहीं पाएँगे और आँतों की क्रिया तेज होने के कारण, जल्दी ही पानी में भीगा कपड़ा रखने से फेफड़ों की जकड़न कम होती है और उन्हें बल मिलता है। रोगी को भाप, स्नान कराकर उसका पसीना बहाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसे गरम पानी में कूल्हों तक या पाँव डालकर बैठाया जा सकता है और धूप स्नान भी करवाया जा सकता है। इससे त्वचा उत्तेजित होगी और उसे बल मिलेगा तथा फेफड़ों की जकड़न दूर होगी।
अपने शरीर की प्रणाली को पोषक तत्त्व प्रदान करने के लिए और हानिकारक तत्त्व बाहर निकालने के लिए रोगी को कुछ दिन तक ताजे फलों का रस ही लेना चाहिए, और कुछ नहीं। इस उपचार के दौरान उसे ताजा फलों के एक गिलास रस में उतना ही पानी मिलाकर दो-दो घंटे के बाद सुबह आठ बजे से शाम आठ बजे तक लेना चाहिए। बाद में धीरे-धीरे ठोस पदार्थ भी शामिल किए जा सकते हैं। किंतु रोगी को सामान्य किस्म की भोजन संबंधी गलतियों से दूर रहना चाहिए। यदि उसके आहार में कार्बोहाइड्रेट चिकनाई एवं प्रोटीन जैसे तेजाब बनाने वाले पदार्थ सीमित मात्रा में रहें और ताजे फल, हरी सब्जियाँ तथा अंकुरित चने जैसे क्षारीय खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में रहें तो सबसे अच्छा रहता है।
चावल, शक्कर, तिल और दही जैसे कफ या बलगम बनाने वाले पदार्थ तथा तले हुए एवं गरिष्ठ खाद्य पदार्थ न ही खाए जाएँ तो अच्छा है।
अस्थमा के रोगियों को अपनी क्षमता से कम ही खाना चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे और अपने भोजन को चबा-चबाकर खाना चाहिए। उन्हें प्रतिदिन कम से कम आठ से दस गिलास पानी पीना चाहिए। भोजन के साथ पानी या किसी तरह का तरल पदार्थ लेने से परहेज करना चाहिए। तेज मसाले, मिर्च अचार बहुत अधिक चाय कॉफी इत्यादि से भी दूर रहना चाहिए।
दमा, विशेषकर तेज दमे का दौरा, हाजमे को खराब करता है। ऐसे मामलों में रोगी पर खाने के लिए जोर मत दीजिए, ऐसे मामलों में जब तक दमे का दौरा दूर न हो जाए तब तक रोगी को लगभग उपवास करने दीजिए। रोगी हर दो घंटे के बाद एक प्याला गरम पानी पी सकता है। ऐसे मामले में यदि रोगी एनीमा लेता है तो उसे बहुत फायदा होता है।

दमा

दमा

दमा या अस्थमा (Asthma) एक गंभीर बीमारी है, जो श्वास नलिकाओं को प्रभावित करती है। श्वास नलिकाएं फेफड़े से हवा को अंदर-बाहर करती हैं। दमा होने पर इन नलिकाओं की भीतरी दीवार में सूजन होता है। यह सूजन नलिकाओं को बेहद संवेदनशील बना देता है और किसी भी बेचैन करनेवाली चीज के स्पर्श से यह तीखी प्रतिक्रिया करता है। जब नलिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं, तो उनमें संकुचन होता है और उस स्थिति में फेफड़े में हवा की कम मात्रा जाती है। इससे खांसी, नाक बजना, छाती का कड़ा होना, रात और सुबह में सांस लेने में तकलीफ आदि जैसे लक्षण पैदा होते हैं।
दमा को ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है, ताकि दमे से पीड़ित व्यक्ति सामान्य जीवन व्यतीत कर सके। दमे का दौरा पड़ने से श्वास नलिकाएं पूरी तरह बंद हो सकती हैं, जिससे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को आक्सीजन की आपूर्ति बंद हो सकती है। यह चिकित्सकीय रूप से आपात स्थिति है। दमे के दौरे से मरीज की मौत भी हो सकती है।
परिचय
अस्थमा या दमा एक अथवा एक से अधिक पदार्थों (एलर्जेन) के प्रति शारीरिक प्रणाली की अस्वीकृति (एलर्जी) है। इसका अर्थ है कि हमारे शरीर की प्रणाली उन विशेष पदार्थों को सहन नहीं कर पाती और जिस रूप में अपनी प्रतिक्रिया या विरोध प्रकट करती है, उसे एलर्जी कहते हैं। हमारी श्वसन प्रणाली जब किन्हीं एलर्जेंस के प्रति एलर्जी प्रकट करती है तो वह अस्थमा होता है। यह साँस संबंधी रोगों में सबसे अधिक कष्टदायी है। अस्थमा के रोगी को सांस फूलने या साँस न आने के दौरे बार-बार पड़ते हैं और उन दौरों के बीच वह अकसर पूरी तरह सामान्य भी हो जाता है।
अस्थमा यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ है - 'जल्दी-जल्दी साँस लेना' या 'साँस लेने के लिए जोर लगाना'। जब किसी व्यक्ति को अस्थमा का दौरा पड़ता है तो वह सामान्य साँस के लिए भी गहरी-गहरी या लंबी-लंबी साँस लेता है; नाक से ली गई साँस कम पड़ती है तो मुँह खोलकर साँस लेता है। वास्तव में रोगी को साँस लेने की बजाय साँस बाहर निकालने में ज्यादा कठिनाई होती है, क्योंकि फेफड़े के भीतर की छोटी-छोटी वायु नलियाँ जकड़ जाती हैं और दूषित वायु को बाहर निकालने के लिए उन्हें जितना सिकुड़ना चाहिए उतना वे नहीं सिकुड़ पातीं। परिणामस्वरूप रोगी के फेफड़े फूल जाते हैं, क्योंकि रोगी अगली साँस भीतर खींचने से पहले खिंची हुई साँस की हवा को ठीक से बाहर नहीं निकाल पाता।
लक्षण
अस्थमा या तो धीरे-धीरे उभरता है अथवा एकाएक भड़कता है। जब अस्थमा या दमा एकाएक भड़कता है तो उससे पहले खाँसी का दौरा होता है, किंतु जब दमा धीरे-धीरे उभरता है तो उससे पहले आमतौर पर श्वास प्रणाली में संक्रमण हो जाया करता है। अस्थमा का दौरा जब तेज होता है तो दिल की धड़कन और साँस लेने की रफ्तार दोनों बढ़ जाती हैं तथा रोगी बेचैन व थका हुआ महसूस करता है। उसे खाँसी आ सकती है, सीने में जकड़न महसूस हो सकती है, बहुत अधिक पसीना आ सकता है और उलटी भी हो सकती है। दमे के दौरे के समय सीने से आनेवाली साँय-साँय की आवाज तंग श्वास नलियों के भीतर से हवा बाहर निकलने के कारण आती है। अस्थमा के सभी रोगियों को रात के समय, खासकर सोते हुए, ज्यादा कठिनाई महसूस होती है।
• छींक आना
• सामान्यतया अचानक शुरू होता है
• किस्तों मे आता है
• रात या अहले सुबह बहुत तेज होता है
• ठंडी जगहों पर या व्यायाम करने से या भीषण गर्मी में तीखा होता है
• दवाओं के उपयोग से ठीक होता है, क्योंकि इससे नलिकाएं खुलती हैं
• बलगम के साथ या बगैर खांसी होती है
• सांस फूलना, जो व्यायाम या किसी गतिविधि के साथ तेज होती है
• शरीर के अंदर खिंचाव (सांस लेने के साथ रीढ़ के पास त्वचा का खिंचाव)
कारण
अस्थमा कई कारणों से हो सकता है। अनेक लोगों में यह एलर्जी मौसम, खाद्य पदार्थ, दवाइयाँ इत्र, परफ्यूम जैसी खुशबू और कुछ अन्य प्रकार के पदार्थों से हो सकता हैं; कुछ लोग रुई के बारीक रेशे, आटे की धूल, कागज की धूल, कुछ फूलों के पराग, पशुओं के बाल, फफूँद और कॉकरोज जैसे कीड़े के प्रति एलर्जित होते हैं। जिन खाद्य पदार्थों से आमतौर पर एलर्जी होती है उनमें गेहूँ, आटा दूध, चॉकलेट, बींस की फलियाँ, आलू, सूअर और गाय का मांस इत्यादि शामिल हैं। कुछ अन्य लोगों के शरीर का रसायन असामान्य होता है, जिसमें उनके शरीर के एंजाइम या फेफड़ों के भीतर मांसपेशियों की दोषपूर्ण प्रक्रिया शामिल होती है। अनेक बार दमा एलर्जिक और गैर-एलर्जीवाली स्थितियों के मेल से भड़कता है, जिसमें भावनात्मक दबाव, वायु प्रदूषण, विभिन्न संक्रमण और आनुवंशिक कारण शामिल हैं। एक अनुमान के अनुसार, जब माता-पिता दोनों को अस्थमा या हे फीवर (Hay Fever) होता है तो ऐसे 75 से 100 प्रतिशत माता-पिता के बच्चों में भी एलर्जी की संभावनाएँ पाई जाती हैं।
दमे के कुछ कारण इस प्रकार हैं-
• जानवरों से (जानवरों की त्वचा, बाल, पंख या रोयें से)
• दीमक (घरों में पाये जाते हैं)
• तिलचट्टे
• पेड़ और घास के पराग कण
• धूलकण
• सिगरेट का धुआं
• वायु प्रदूषण
• ठंडी हवा या मौसमी बदलाव
• पेंट या रसोई की तीखी गंध
• सुगंधित उत्पाद
• मजबूत भावनात्मक मनोभाव (जैसे रोना या लगातार हंसना) और तनाव
• एस्पिरीन और अन्य दवाएं
• 20 प्रतिशत लोगों को ऐस्प्रिन जैसी दवाओं से तकलीफ होती है, वे एसीटैमिनोफेन इस्तेमाल कर सकते हैं
• खाद्य पदार्थों में सल्फाइट (सूखे फल) या पेय (शराब)
• गैस्ट्रो इसोफीगल रीफ्लक्स
• विशेष रसायन या धूल जैसे अवयव
• संक्रमण
• पारिवारिक इतिहास
• तंबाकू के धुएं से भरे माहौल में रहनेवाले शिशुओं को दमा होने का खतरा होता है। यदि गर्भावस्था के दौरान कोई महिला तंबाकू के धुएं के बीच रहती है, तो उसके बच्चे को दमा होने का खतरा होता है।
• मोटापे से भी दमा हो सकता है। अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

नाभिकीय चिकित्सा

नाभिकीय चिकित्सा

सामान्य पूर्ण शरीर स्कैन, कैंसर आदि में उपयोगी
नाभिकीय चिकित्सा (अंग्रेज़ी:न्यूक्लियर मेडिसिन) एक प्रकार की चिकित्सकीय जांच तकनीक होती है। इसमें रोगों चाहे आरंभिक अवस्था में हो हो या गंभीर अवस्था में, उसकी गहन जांच और उपचार संभव है। कोशिका की संरचना और जैविक रचना में हो रहे परिवर्तनों पर आधारित इस तकनीक से चिकित्सा की जाती है। इस पद्धति को न्यूक्लियर मेडिसिन भी कहा जाता है। वर्तमान प्रचलित चिकित्सा पद्धति में रोगों का मात्र अंदाजा या अनुमान ही लगाते हैं, और उपचार करते हैं, जबकि नाभिकीय चिकित्सा में न केवल सिर्फ रोग को बहुत आरंभिक अवस्था में पकड़ा जाता है, वरन यह प्रभावशाली इलाज और दवाइयों के बारे में भी स्पष्टता से बहुत कुछ बता पाने में सक्षम है। इससे किसी भी बीमारी की विस्तृत जानकारी, उसके प्रभाव और उसके उपचार निपटने के प्रभावशाली उपायों आदि के बारे में पता चलता है। इतना ही नहीं, इससे बीमारी के आगे बढ़ने के बारे में यानी भविष्य में इसके फैलने की गति, दिशा और तरीके का भी ज्ञान हो जाता है। यह तकनीक सुरक्षित, कम खर्चीली और दर्दरहित चिकित्सा तकनीक है। सामान्यतया किसी प्रकार के रोग होने के बाद ही सी. टी. स्कैन, एम.आर.आई और एक्स-रे आदि से परीक्षण करने से प्रभावित अंगो की स्थिति का पता चल पाता है। इस पद्धति में रोगी को एक रेडियोधर्मी समस्थानिक को दवाई रूप में इंजेक्स्शन के रास्ते शरीर में दिया जाता है। फिर उसके रास्ते को स्कैनिंग के जरिये देख्कर पता लगाय़ा जाता है, कि शरीर के किस भाग में कौन सा रोग हो रहा है इसके साथ ही इनकी स्कैनिंग के कुछ दुष्प्रभाव (साइड इफैक्ट) की भी संभावना होती है।

हाइपरथायरॉएडिज़्म आकलन हेतु आयोडीन-१२३ स्कैन
नाभिकीय चिकित्सा में रोगी के शरीर में इंजेक्शन द्वारा बहुत ही कम मात्र में रेडियोधर्मी तत्व प्रविष्ट करा दिये जाते हैं, जिसे शरीर में संक्रमित या प्रभावित कोशिका इसे अवशोषित कर लेते हैं। इससे होने वाले विकिरण को एक विशेष प्रकार के गामा कैमरे में उतार कर रोग की सटीक और विस्तृत जांच की जाती है। न्यूक्लियर मेडिसिन स्कैनिंग से मिले अलग फिल्म में प्रभावित अंग की विस्तृत जानकारी मिलती है। नाभिकीय चिकित्सा तकनीक में रेडियो धर्मी तत्व का प्रयोग इतने कम मात्र में किया जाता है कि इससे होने वाले विकिरण का प्रभाव कोशिकाओं पर नहीं पड़ता है।
नाभिकीय चिकित्सा द्वारा कैंसर, हृदय, मस्तिष्क, फेफड़ा, थायरॉइड अपटेक स्कैन और बोन स्कैन किए जाते हैं। इसके अलावा अन्य रोगों का ईलाज भी नाभिकीय चिकित्सा द्वारा किया जाता है। अवटु ग्रंथि में आई खराबी और हड्डी में लगातार हो रहे दर्द का इलाज इसी तकनीक से होता है।
हृदय स्कैनिंग
हृदय के थैलियम परीक्षण के द्वारा हृदय की विभिन्न मांसपेशियों के ऊतकों की कार्यक्षमता को जांचा जा सकता है। इसके अलावा वहां की धमनियों में होने वाले रक्त प्रवाह को जांचा जाता है। इस प्रकार एंजियोग्राफी की आवश्यकता नहीं रहती है। इस जांच से हृदयाघात की संभावना का अनुमान बहुत पहले पता लगाया जा सकता है जिससे सही समय पर उचित उपचार द्वारा जीवन की रक्षा की जा सकती है।


हड्डी स्कैन
नाभिकीय चिकित्सा द्वारा हड्डियों व संधियों में होने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तन की जांच की जाती है। हड्डियों में होने वाली गाँठों की जांच भी संभव होती है। इसके द्वारा सूक्ष्मतम फ्रैक्चर (हेयरलाइन फ्रैक्चर) की जांच व गंभीर ऑस्टियोमेलाइटिस की जांच भी की जाती है। इसके द्वारा पीठ दर्द के निवारण के लिए रीढ़ की संपूर्ण जांच भी संभव है।
वृक्क स्कैन
वृक्क (गुर्दा) जो शरीर का अत्यन्त महत्वपूर्ण शोधक अंग है, इस पद्धति द्वारा उसकी स्थिति व कार्यक्षमता का सही मूल्यांकन किया जा सकता है। गुर्दे के प्रत्यारोपण की आवश्यकता और प्रत्यारोपण के पश्चात उसकी कार्यक्षमता की जांच इस पद्धति द्वारा की जाती है। उपरोक्त रोगों के अलावा पेट व अन्य रोगों की जांच गामा स्कैनिंग द्वारा संभव है।

कैंसर के आठ लक्षण

कैंसर के आठ लक्षण

पेशाब में आनेवाले ख़ून
ख़ून की कमी की बिमारी अनीमिया
पखाने में आनेवाला ख़ून
खांसी के दौरान ख़ून का आना
स्तन में गाँठ
कुछ निगलने में दिक़्कत होना
मीनोपॉस के बाद ख़ून आना
प्रोस्टेट के परीक्षण के असामान्य परिणाम

दमा में सावधानी

दमा के रोगी रखे सावधानी


दमा के रोगी को हल्का भोजन करना चाहिए। भारी भोजन के सेवन से श्वास में कमी उत्पन्न होने लगती है।
रोगी को दबाव अर्थात तनाव और दृढ़ संवेग जैसे चिंताए डर आदि से बचना चाहिए। ये सभी दमे के दौरे को प्रेरित कर सकते हैं।
रोजाना साँस की कोई वर्जिश करें और सरसों के तेल से छाती पर मालिश करने से आराम पहुँचता है।
सोते वक्त रोजाना सिर के नीचे 3.4 तकिए रखकर सोने की आदत डालने से भी दमे के दौरे का असर धीरे.धीरे कम हो जाता है।
हल्की और जल्द हजम होने वाली चीजों जैसे मूँग और अरहर की दालए तोरईए कद्दू वगैरह इस्तेमाल करें।
दमा रोग के लिए इन्हेलर भी बेहतर विकल्प है।
अस्थमा के मरीज को खुली और ताजी हवा में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताना चाहिए। इसी के साथ ही भरपूर रोशनी भी लेनी चाहिए। ताजे और स्वच्छ पानी का भी भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए।
हफ्ते में एक बार दमे के रोगी को उपवास जरूर रखना चाहिए।
दमा के रोगी को शरीर में एसिड पैदा करने वाली चीजें जैसे कार्बोहाइड्रेटए फैट्स और प्रोटीन का इस्तेमाल कम मात्रा में करना चाहिए।
दमा के रोगी को नाश्ते में मुनक्का का शहद के साथ इस्तेमाल करना चाहिए।
दोपहर और रात के खाने में कच्ची सब्जियाँ जैसे ककड़ीएटमाटरए गाजर और सलाद का इस्तेमाल करें। साथ ही एक प्याला पकी हुई सब्जियाँ और गेहूँ की रोटी भी ले सकते हैं।
रात का खाना ज्यादातर सूरज ढलने से पहले या फिर कभी.कभी सोने के दो घंटे पहले करने से इसका बुरा प्रभाव हाजमें पर नहीं पड़ता है।
अस्थमा के रोगी को अपनी भूख से कम खाना चाहिए। भोजन धीरे.धीरे और खूब चबाकर करना चाहिए।
दिन में 8.10 गिलास पानी जरूर पीएँ।
दौरे के वक्त में शुरूआती समय में रोगी को हर दो घन्टे में एक प्याला गरम पानी पीने को देते रहें।
इन सब पथ्यों के साथ रोगी को कुदरत के कुछ नियमों का पालन करना भी बेहद जरूरी है। रोगी को नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। धूलए मिट्टी और एलर्जी पैदा करने वाले कीटाणुओं से खुद का बचाव करना चाहिए। रोगी को सर्दी से बचना चाहिए और एलार्जिक फूड के इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए। इसी के साथ ही मानसिक चिन्ताओं से बचना चाहिए।


आपको एक जरूरी बात और बता दें कि अस्थमा की चिकित्सा में शहद बहुत ही फायदेमंद माना जाता है। अगर अस्थमा का रोगी एक जग में शहद भर लें और फिर उसके नजदीक जाकर साँस लें तो उसकी साँस की तकलीफ दूर होकर वह हल्का महसूस करेगा। कुछ वैद्य और यूनानी हकीम तो अस्थमा के इलाज के लिए एक साल पुराना शहद इस्तेमाल करने की भी सलाह देते हैं।

दमा के लिए हल्दी भी एक बहुत अच्छी दवाई मानी जाती है। दमा के रोगी को दिन में दो से तीन बार एक गिलास दूध में एक चम्मच हल्दी मिलाकर देने से रोग में फायदा होता है। इसका इस्तेमाल खाली पेट करना चाहिए।

अगर उपरोक्त नियमों का सही और योग्य रूप से अस्थमा के रोगी पालन करें तो वे अपनी जिंदगी को दूसरों की तरह ही खुशहाल और स्वस्थ बनाकर सफल जीवन जी सकते हैं।