कुल पेज दृश्य

बुधवार, 30 मार्च 2011

पेट में कीड़े

<> <> <> <>   <> <> <>   <> <>

 
पेट में कीड़े

 

 


 
बच्चों के पेट में साफ-सफाई एवं स्वच्छता के अभाव में कई प्रकार के छोटे बड़े परजीवी कृमि निवास कर लेते हैं, ज न केवल बच्चों के निगले अधपचे भोजन को निरंतर खाते रहते हैं, बल्कि इन्हें रात को या दिन वक्त-बेवक्त परेशान एवं बेचैन करते रहते हैं। संक्रमित बच्चे पढ़ाई के वक्त अपना ध्यान भी केंद्रित नहीं कर पाते हैं। निमैटोइस नाम से जाने जाते ये परजीवी कृमि प्राणि जगत से निमैटाडा संघ के अकशेरूकी जीव है। प्रात: ये एक ही परपोषी (होस्ट) में अपना संपूर्ण जीवन कर लेते हैं।बच्चों के पेट (आंत) में पाए जाने वाले कृमि एक सेमी. से लेकर चालीस सेमी तक लंबे हो सकते हैं। व्यस्कों की तुलना में बच्चों में अधिक पाए जाने वाले गोल-कृमिकभी-कभी जानलेवा साबित होते हैं। चिकित्सा शास्त्र एवं परजीवी विज्ञान में इन गोल-कृमियों को राउंड-वर्स (एस्केरिस लुब्रीकोइड्‌स) नाम से जाना है। ये कृमि बेलनाकार, सफेद अथवा गुलाबी रंग एवं लंबाई में पोने से डेढ़ फुट लबे होते हैं। बच्चों की आंत में इनकी कोई निश्चित संया नहीं होती, पचास से अधिक कृमि देखे गए हैं। अधिक सं?या में होने पर ये आपस में गुत्थमगुत्था एवं लपेटे हुए होने से आंत में पचे भोजन का प्रवाह अवरोध कर देते हैं, जिससे आंत की दीवार के फटने की संभावना रहती है।अमूमन ये कृमि शोच के दौरान मल के साथ बाहर निकल आते हैं परंतु उल्टी के वक्त नाक से भी निकल आते हैं। 
  संक्रमण :
   प्रजनन के उपरांत मादा ऐस्केरिस (कृमि) एक बार में लगभग बीस हजार और एक दिन में लगभग 2 लाख निषेचित या भ्रूणित देने लगती है। बच्चों के मल (विष्ठा) के साथ निकले ये अण्डे मिट्टी में कई दिनों तक जीवित रहते हैं। बच्चे
 जब इस दूषित (संक्रमित) मिट्टी में खेलते-कुदते हैं
, तो ये अण्डे हाथ से मुंह में स्थानांतरित हो जाते हैं। कभी-कभी ये अण्डे संक्रमित भोजन (सब्जियांफल इत्यादि) एवं पानी के माध्यम से भी बच्चों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। आंत की दीवार को बेधकर, अण्डों से निकले किशोर (जूवेनाइल्स) यकृत में प्रवास करते हैं। लारवा में परिवर्धन उपरांत हृदय में होते हुए बच्चों के फेफड़ों में हपुंच जाते हैं। कभी-कभी रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों को भी ये लारवा संक्रमित कर देते हैं। अंतत: ये लारवा पुन: आंत में पहुंच जाते हैं, जहां ये व्यस्क परजीवी में परिवर्धित होकर बच्चों के पचे हुए भोजन को खाने लग जाते हैं।
 
लक्षण :
      संक्रमित बच्चे के पेट दर्द, उल्टी, सिरदर्द, जलन, चक्कर आनारात में डरना इत्यादि सामान्य शिकयतें अमूमन बनी रहती हैं। कभी-कभी दस्त एवं मुंह से लार निकलना जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं। अक्सर संक्रमित बच्चे सोते-सोते अथवा गहरी नींद में बार-बार दांतों को रगड़ते हैं। 
  निदान :
     संक्रमित बच्चे के विष्ठा (मल) आलेप (फिकल-स्मीअर) की सुक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा जांच करने पर ऐस्केसि कृमि के भ्रूणिय अण्डे पाए जाते हैं, अर्थात बच्चा निश्चित रूप से ऐस्केरिएसिस रोग से निश्चित रूप से ऐस्केरिएसिस रोग से संक्रमित पीड़ित है।
  रोकथाम :
    उक्त लक्षण प्रकट होने पर बच्चों के डाक्टर से उचित परामर्श लेकर उपचार प्रारंभ कर देना चाहिए। आयुर्वेद में भी इसका इलाज है। चाय की दो च?मच
 जितना पाइपेंरैजिन साइट्रेट शर्बत का दिन में दो बार एक सप्ताह तक सेवन करने पर गोल कृमियों का संक्रमण खत्म किया जा सकता है। सैटोनिन और चीनोपोडियम का तेल भी लाभदायक औषधियां है।
        चूंकि संक्रमण का मु?य स्त्रोत संक्रमित (प्रदूषित) मिट्‌टी है। बच्चों को न ही बिना जूते चप्पल पहने खुले में शौच जाने दें और न ही प्रदूषित मिट्टी में खेलने दें। प्रदूषित मिट्टी से ऊपरी साग सब्जियां एवं फल को खाने सेपूर्व अच्दी तरह स्वच्द पानी से धो लेना चाहिए। हाथ के नाखूनों को नियमित काटना एवं शोच के बाद तथा खाने से पूर्व हाथों को साबून द्वारा भली प्रकार से धो लेने से संक्रमण की संभावना नहीं रहती। बिना किसी औषधि नियमित साफ सफाई एवं स्वच्छता रखने से बच्चों में इन कृमियों के संक्रमण होने की संभावना बिल्कुल नहीं रहती है और संक्रमण हो वो भी खत्म हो जाता है।

 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें