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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

गर्मियों में सबसे बड़ा खतरा लू


 लू
गर्मियों में सबसे बड़ा खतरा लू लगने का होता है। इससे बचाव ही इसका उपचार है। खाली पेट न रहें। पानी अधिक पिएँ। सिर में टोपी पहनें, कान बंद रखें। ककड़ी, प्याज, मौसंबी, मूली, बरबटी, दही, मठा, पुदीना, चना का उपयोग करें। धूप से आकर तुरन्त पानी पीना, नहाना खतरनाक है। मौसम का तापमान बढ़ने से शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है। इस बिगाड़ का शरीर पर आंतरिक दुष्प्रभाव है लू। तेज बुखार, बेचैनी, असहनीय सिर दर्द, पेशाब न होना, शरीर में जलन, मुँह और गले में सूखापन, तीव्र अवस्था में बेहोशी इसके मुख्य लक्षण हैं। अगर लू लग ही जाए तो होम्योपैथी में इसके असरकारी उपाय हैं। 

होम्योपैथी उपचा 
नैट्रम म्यूर-200- 
शरीर में पानी की व्यवस्था कायम रखना ही इस दवा का काम है। पानी कम होने पर मुँह सूखना, सिर दर्द, चक्कर आना, बुखार, बेहोशी आदि में 5 गोली हर एक घंटे में दें, जब तक कि आराम न हो। रोकथाम के लिए दिन में दो खुराक काफी है। धूप में काम करने वाले मजदूर लोगों के लिए यह दवा अमूल्य है। 

अलियम सेप्पा-200 
शरीर के तापमान की स्थिति बनाए रखना ही इस दवा का मुख्य काम है। रोकथाम के लिए 5 गोली दिन में 2 बार लें। लू लगने पर जैसे तेज बुखार, शरीर में जलन, बेहोशी आदि में 5 गोली हर एक घंटे में दें, जब तक तकलीफ कम न हो। 

नेट्रम म्यूर, अलियम सेप्पा 200 की उक्त खुराक के अलावा अन्य बीमारियाँ होने पर ग्लोनाइन 200, 

रविवार, 3 अप्रैल 2011

नेट से हो खून की जांच, तो इंफेक्शन का खतरा नहीं

नेट से हो खून की जांच, तो इंफेक्शन का खतरा नहीं

 खून की जांच के लिए अगर न्यूक्लिक एसिड टेस्ट (नेट) का इस्तेमाल किया जाए तो एचआईवी, हेपटाइटिस बी व सी के वायरस का बेहद कम वक्त में पता लगाया जा सकता है। अभी खून जांच के लिए परंपरागत एलिजा टेस्ट अपनाया जाता है।
इस टेस्ट में वायरस का पता लगाने में 6 सप्ताह से 6 साल तक लग जाते हैं, जबकि नेट के जरिए इस तरह के वायरस का पता केवल चार दिन में लग जाता है। एलिजा के साथ-साथ अगर नेट टेस्ट की सुविधा सभी अस्पतालों में मुहैया होने लगे तो खून चढ़ाने के दौरान इंफेक्शन का खतरा न के बराबर रह जाएगा। अभी तक देश में अपोलो अस्पताल और बेंगलूर के रोटरी के ब्लड बैंक में ही नेट टेस्ट की सुविधा है। टेस्ट को वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन में भी मान्यता दी है।

अमेरिका सहित कई यूरोपियन देशों ने इस टेस्ट को अपने सभी अस्पतालों में अनिवार्य कर दिया है। पूरी दुनिया में नेट टेस्ट की किट मुहैया कराने वाली कैरोन कंपनी ने अब भारत में हेमोजनोमिक्स के साथ मिलकर इस टेस्ट के प्रति लोगों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया हैं।
जागरुकता कार्यक्रम के दौरान अस्पतालों के सर्जन, केंद्र और राज्य सरकारों के सरकारी अस्पतालों, ब्लड बैंकों के इंचार्ज व टेक्रीशियनों को जागरूक किया जाएगा। कैरोन के सीनियर मेडिकल डायरेक्टर डेबिड निकोल्स व एशिया पसिफिक की रीजनल मार्केटिंग मैनेजर बेंडी बाओ के मुताबिक सरकारी व प्राइवेट अस्पतालों में नेट टेस्टिंग के लिए वह केंद्र व राज्यों सरकारों के स्वास्थ्य मंत्रालयों से बातचीत कर रही हैं।
नाको भी अपने प्रोग्राम-३ के एजेंडा में नेट टेस्ट शामिल करने जा रहा है। भारत में कैरोन के इंडिया बिजनेस मैनेजर अजय कुमार भट्ट और हेमोजेनोमिक्स के अध्यक्ष सुमित बगेरिया के मुताबिक परंपरागत तरीके से टेस्ट किए गए खून की एक बोतल की कीमत जहां 600-900 रूपये के बीच पड़ती है, वहीं नेट टेस्ट वाले खून की बोतल की कीमत 1200-1500 रूपये के बीच होती है। लेकिन इस टेस्ट से खून चढ़ाते वक्त होने वाले इंफेक्शन का खतरा न के बराबर रह जाएगा। भारत में 2212 ब्लड बैंक हैं और उनमें से केवल दो जगह ही इस टेस्ट की सुविधा है।
वहीं अपोलो अस्पताल में ब्लड बैंक के हेड डॉ. आर. एन. मखरू का कहना है कि अस्पताल में अब तक 20 हजार से ज्यादा यूनिट ब्लड की नेट टेस्टिंग हो चुकी है। अस्पताल में सारा खून इसी टेस्टिंग के जरिए चढ़ाया जाता है। दरअसल शरीर में किसी भी तरह का इंफेक्शन होने पर एंटी बॉडीज बन जाती हैं।
अगर परंपरागत तरीके से टेस्ट किया जाता है तो टेस्ट नेगेटिव आता है क्योंकि वायरस के पैदा होने का पता इस टेस्ट में नहीं चल पाता, जबकि नेट टेस्ट में सीधे वायरस की जानकारी मिल जाती है। लोगों को खतरनाक बीमारियों से बचाने के लिए इस टेस्ट को पूरे देश में अनिवार्य किया जाना चाहिए।

लप्रोस्कोपिक सर्जरी

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में आज नित नए अविष्कार हो रहे हैं, उसी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की सर्जरी के क्षेत्र में आधुनिकतम देन है लप्रोस्कोपिक सर्जरी, जिन रोगों के कारण पहले इलाज के अभाव में आमजन को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता था, आज उन्हीं तकलीफों से लप्रोस्कोपिक सर्जरी की सहायता से कुछ ही घंटों में छुटकारा पाया जा सकता है। साधारण पुराने तरीके की खुली सर्जरी को छोड़ समझदार लोग व सर्जन लप्रोस्कोपिक सर्जरी ही अपना रहे हैं। लप्रोस्कोपिक सर्जरी द्वारा जहां पेट की अंदरुनी बीमारियों को आसानी से खोजा जा सकता है वहीं बड़े चीरे की अपेक्षा मामूली से चीरे द्वारा ही बड़े से बड़े आपरेशन किए जा सकते हैं। इस विधि में सभी गतिवविधियों को टीवी स्क्रीन पर देखकर कार्य को अंजाम दिया जाता है। इस आधुनिक विधि से जहां आसानी से, पित्त की थैली की पथरी, बच्चेदानी एवं रसौली का आपरेशन, अपेंडिक्स एवं हरनियां, गदूद के आपरेशन, निसंतान की जांच आदि आसानी से संभव है।
वहीं दूसरी और लप्रोस्कोपिक सर्जरी में मरीज को दर्द भी नहीं सहन करना पड़ता एवं आपरेशन के दौरान खून की भी अत्यंत कम मात्रा में आवश्यकता पड़ती है एवं इस दौरान दवाओं की भी कम मात्रा में आवश्यकता पड़ती है।
साधारण सर्जरी से जहां लप्रोस्कोपिक सर्जरी कुल मिलाकर सस्ती पड़ती है, वहीं इसमें साधारण सर्जरी से होने वाले दुष्प्रभाव जैसे हर्नियां, आदि भी लप्रोस्कोपिक सर्जरी के दौरान नहीं होते। लप्रोस्कोपिक सर्जरी के साथ-साथ जो मुद्दा अहम है वह है कि सर्जरी करने वाला सर्जन भी अनुभवी होना अति आवश्यक है एवं सर्जन द्वारा सर्जरी के दौरान व्यवहार में लाई जाने वाली लप्रोस्कोपिक मशीन भी अति आधुनिक एवं अच्छी कंपनी द्वारा निर्मित होनी चाहिए तभी शत प्रतिशत सफलता मिलनी निश्चित होगी।



गुरुवार, 31 मार्च 2011

पेरिफेरियल आर्टिरियल डिजीज दिल का नया रोग


पेरिफेरियल आर्टिरियल डिजीज       दिल का नया रोग



आमतौर पर पेरिफेरियल आर्टिरियल डिजीज यानी पीएडी की शुरूआत टखनों से होती है। इसलिए टखनों की स्थिति में थोड़ा-सा भी बदलाव होने पर तुरंत चिकित्सक से सलाह लें अमेरिका डायबिटीज एसोसिएशन की शोध के अनुसार जो लोग मधुमेह की चपेट में हैं वे अपने दिल को पेरिफेरियल आर्टिरियल डिजीज यानी पीएडी की एक नई बीमारी सौंप रहे है। यह रक्त ले जाने वाली नलिकाओं को सीधा प्रभावित करता है। परीक्षणों में पाया गया हैं कि इस रोग की शुरूआत शरीर में शर्करा के बढ़ते हुए स्तर के कारण होती है। होता यह है कि जब शरीर में शर्करा का स्तर बढ़ जाता है और वह अनियंत्रित हो जाता है, तो रक्त में बढ़ी शर्करा अपने ही वाहक यानी रक्त ले जाने वाली नलिकाओं को धीरे-धीरे सकंुचन की स्थिति में ले आती है। इस तरह से उनमें रूकावट की स्थिति पैदा हो जाती है और रक्त प्रवाह में अड़चने आती है। इसे सुचारू बनाने के लिए दिल को अतिरिक्त कार्य करना पड़ता है और वह धीरे-धीरे पस्त होने लगता है।



इस तरह से दिल कमजोर हो बैठ जाने की स्थिति में आ जाता है। दिल पर मिठास की इस मार को लेकर न्यूयार्क विश्वविद्यालय स्थित डायबिटीज ट्रीटमेंट सेंटर में भी शोधकार्य प्रारंभ हो गए है। संस्था के प्रमुख शोधकर्ता एवं केन्द्र के निदेशक डॉ. पीटर साहीन की प्रारंभिक शोध बताती है कि पीएडी का खतरा यूं तो मधुमेह पीड़ित लोगों को सबसे अधिक है मगर सामान्य लोग भी इसके खतरे की संभावना से अछूते नहीं हैं।


कारण और संभावनाओं पर अध्ययन करने के बाद स्पष्ट हुआ है कि पीएडी के विस्तार में धूम्रपान विशेष भूमिका निभा रहा है। जो लोग लम्बे समय से धूम्रपान कर रहे हैं या फिर उस व्यवसाय या वातावरण के बीच अपना लम्बा समय गुजार रहे हैं जहां वायु प्रदूषण विशेषतौर पर अपेक्षाकृत अधिक है, वे इस रोग को जल्द आमंत्रित करते हैं। परीक्षणों में पाया गया है कि धूम्रपान का प्रभाव सीधे रक्त पर पड़ता है जो बाद में धमनियों को प्रभावित कर उसमें संकरापन लाता है और इस तरह से उनमें पैदा संकुचन पेरिफेरियल आर्टीरियल डिजीज की शुरूआत कर देता है।

रिपोर्ट के अनुसार पीएडी रोग के विस्तार में आज की जीवन शैली विशेष कर खान-पान का बदला स्वरूप सहयोग दे रहा है। कम उम्र में ही चटपटा, वसायुक्त भोजन करने और शारीरिक कार्य न्यूनतम करने के कारण वसा की तह शरीर में अपना विस्तार करती जाती है।पश्चिमी देशों क देन फास्ट फूड अब उन्हीं की नजर में खटकने लगे हैं, कार ऐसे खाद्य पदार्थों की नजर और कहर दिल पर है जो आपके तन में धड़कन लिए हुए है।

डॉ. पीटर की रिपोर्ट के अनुसार इस स्थिति में रक्त धमनियों के भीतरी भाग में वसा यानी चर्बी का जमावड़ा होता जाता है। इसका प्रभाव सीधा धमनियों के लचीलेपन पर पड़ता है। धमनियों में संकरापन रक्त प्रवाह में अड़चन पैदा कर देता है और पुन: हृदय का उसे सुचारू करने के लिए अतिरिक्त दाब देना पड़ता है जो इसे थका देता है।
 रिपोर्ट बताती है कि इस स्थिति में धमनियां हृदय की पेशियों को समुचित पोषण नहीं दे पाती है और उनमें शिथिलता आने लगती है। इस स्थिति में पैरिफेरियल आर्टीरियल डिजीज अपने पांव पसारने लगती है।

यही वो स्थिति भी है जो एंजाइना को पनपाती है। इसका प्रभाव सीने के बीचो-बीचो होते गंभीर, असहनीय दर्द के रूप में भी देखा जा सकता है। महिलाओं में रजोनिवृत्ति के दौरान इस तरह की दिक्कतें सामने आती है।
डॉ. पीटर की रिपोर्ट के अनुसार पीएडी रोग के विस्तार में बढ़ता कॉलेस्ट्रॉल भी प्रमुख कारक है। इसमें दो राय नहीं कि कॉलेस्ट्रॉल की एक सीमित मात्रा हमारे लिए लाभकारी है मगर इसकी मात्रा अनियंत्रित बढ़ जाना हमारे शरीर के लिए खतरे की घंटी है। डॉ. पीटर के अनुसार मधुमेह से प्रभावित रोगियों को विशष तौर पर हृदय रोगों की जांच कराते रहना चाहिए। इसी प्रकार रक्त चाप यानी ब्डल प्रेशर पीड़ित भी नियमित जांच कराएं। रिपोर्ट में पेरिफेरियल आर्टिरि डिजीज की जांच के लिए बड़ा अचूक और सहज उपाय बताया गया है।


डॉ. पीटर के अनुसार यह एक नई रोग की शुरूआत है, इसलिए इसकी जांच में चूक या अनभिज्ञता होना मुमकिन ही है। उनका मानना है कि आमतौर पर पीएडी की शुरूआत टखनों से होती हैं डॉ. पीटर की चिकित्सीय सलाह है कि पहले रोगी का रक्त चाप सामान्य पद्धति से लिया जाए। इसके बाद उसके टखने से रक्तचाप मापा जाए। इस तरह से दोनों रक्त चाप की तुलना की जाए। अगर टखनों के रक्तचाप में अपेक्षाकृत बहुत कमी नजर आए तो जान लेना चाहिए कि दिल निश्चित ह पीएडी की चपेट में है। अगर ऐसा नहीं है और दोनों में समानता है अगर व्यक्ति विशेष मधुमेह से पीड़ित है तो भी स्थिति सामान्य न समझी जाए। ऐसी स्थिति में हर पांच साल के अंतराल पर पीएडी परीक्षण करवाते रहना चाहिए। चूंकि यह रोग मधुमेह पीड़ितों को ज्यादा प्रभावित करता है। अत: ऐसे रोगियों को अधिक सचेत रहन की आवश्यकता है।


पेरिफेरियल आर्टिरियल डिजीज से दिल को बचाने के लिए डॉ. पीटर की सलाह है कि धुम्रपान और तनाव को त्याग दें। हमेशा सकारात्मक सोच रखें। इसके अलावा अधिक भोजन को प्राथमिकता न दें। संतुलित भोजन करें। नियमित रूप से व्यायाम करें। इस तरह से दिल की कार्यक्षमता बढ़ती है। ध्यान रखें कि समय-समय पर न केवल पीएडी की बल्कि मधुमेह, रक्तचाप, ब्लड शुगर आदि की जांच कराते रहें।

पीएडी टेस्ट कराएं


धूम्रपान त्याग दें
संतुलित भोजन लें
कॉलेस्ट्रॉल काबू में रखें
तनाव न बढ़ाएं
मधुमेह पर काबू रखें

बुधवार, 30 मार्च 2011

पेट में कीड़े

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पेट में कीड़े

 

 


 
बच्चों के पेट में साफ-सफाई एवं स्वच्छता के अभाव में कई प्रकार के छोटे बड़े परजीवी कृमि निवास कर लेते हैं, ज न केवल बच्चों के निगले अधपचे भोजन को निरंतर खाते रहते हैं, बल्कि इन्हें रात को या दिन वक्त-बेवक्त परेशान एवं बेचैन करते रहते हैं। संक्रमित बच्चे पढ़ाई के वक्त अपना ध्यान भी केंद्रित नहीं कर पाते हैं। निमैटोइस नाम से जाने जाते ये परजीवी कृमि प्राणि जगत से निमैटाडा संघ के अकशेरूकी जीव है। प्रात: ये एक ही परपोषी (होस्ट) में अपना संपूर्ण जीवन कर लेते हैं।बच्चों के पेट (आंत) में पाए जाने वाले कृमि एक सेमी. से लेकर चालीस सेमी तक लंबे हो सकते हैं। व्यस्कों की तुलना में बच्चों में अधिक पाए जाने वाले गोल-कृमिकभी-कभी जानलेवा साबित होते हैं। चिकित्सा शास्त्र एवं परजीवी विज्ञान में इन गोल-कृमियों को राउंड-वर्स (एस्केरिस लुब्रीकोइड्‌स) नाम से जाना है। ये कृमि बेलनाकार, सफेद अथवा गुलाबी रंग एवं लंबाई में पोने से डेढ़ फुट लबे होते हैं। बच्चों की आंत में इनकी कोई निश्चित संया नहीं होती, पचास से अधिक कृमि देखे गए हैं। अधिक सं?या में होने पर ये आपस में गुत्थमगुत्था एवं लपेटे हुए होने से आंत में पचे भोजन का प्रवाह अवरोध कर देते हैं, जिससे आंत की दीवार के फटने की संभावना रहती है।अमूमन ये कृमि शोच के दौरान मल के साथ बाहर निकल आते हैं परंतु उल्टी के वक्त नाक से भी निकल आते हैं। 
  संक्रमण :
   प्रजनन के उपरांत मादा ऐस्केरिस (कृमि) एक बार में लगभग बीस हजार और एक दिन में लगभग 2 लाख निषेचित या भ्रूणित देने लगती है। बच्चों के मल (विष्ठा) के साथ निकले ये अण्डे मिट्टी में कई दिनों तक जीवित रहते हैं। बच्चे
 जब इस दूषित (संक्रमित) मिट्टी में खेलते-कुदते हैं
, तो ये अण्डे हाथ से मुंह में स्थानांतरित हो जाते हैं। कभी-कभी ये अण्डे संक्रमित भोजन (सब्जियांफल इत्यादि) एवं पानी के माध्यम से भी बच्चों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। आंत की दीवार को बेधकर, अण्डों से निकले किशोर (जूवेनाइल्स) यकृत में प्रवास करते हैं। लारवा में परिवर्धन उपरांत हृदय में होते हुए बच्चों के फेफड़ों में हपुंच जाते हैं। कभी-कभी रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों को भी ये लारवा संक्रमित कर देते हैं। अंतत: ये लारवा पुन: आंत में पहुंच जाते हैं, जहां ये व्यस्क परजीवी में परिवर्धित होकर बच्चों के पचे हुए भोजन को खाने लग जाते हैं।
 
लक्षण :
      संक्रमित बच्चे के पेट दर्द, उल्टी, सिरदर्द, जलन, चक्कर आनारात में डरना इत्यादि सामान्य शिकयतें अमूमन बनी रहती हैं। कभी-कभी दस्त एवं मुंह से लार निकलना जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं। अक्सर संक्रमित बच्चे सोते-सोते अथवा गहरी नींद में बार-बार दांतों को रगड़ते हैं। 
  निदान :
     संक्रमित बच्चे के विष्ठा (मल) आलेप (फिकल-स्मीअर) की सुक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा जांच करने पर ऐस्केसि कृमि के भ्रूणिय अण्डे पाए जाते हैं, अर्थात बच्चा निश्चित रूप से ऐस्केरिएसिस रोग से निश्चित रूप से ऐस्केरिएसिस रोग से संक्रमित पीड़ित है।
  रोकथाम :
    उक्त लक्षण प्रकट होने पर बच्चों के डाक्टर से उचित परामर्श लेकर उपचार प्रारंभ कर देना चाहिए। आयुर्वेद में भी इसका इलाज है। चाय की दो च?मच
 जितना पाइपेंरैजिन साइट्रेट शर्बत का दिन में दो बार एक सप्ताह तक सेवन करने पर गोल कृमियों का संक्रमण खत्म किया जा सकता है। सैटोनिन और चीनोपोडियम का तेल भी लाभदायक औषधियां है।
        चूंकि संक्रमण का मु?य स्त्रोत संक्रमित (प्रदूषित) मिट्‌टी है। बच्चों को न ही बिना जूते चप्पल पहने खुले में शौच जाने दें और न ही प्रदूषित मिट्टी में खेलने दें। प्रदूषित मिट्टी से ऊपरी साग सब्जियां एवं फल को खाने सेपूर्व अच्दी तरह स्वच्द पानी से धो लेना चाहिए। हाथ के नाखूनों को नियमित काटना एवं शोच के बाद तथा खाने से पूर्व हाथों को साबून द्वारा भली प्रकार से धो लेने से संक्रमण की संभावना नहीं रहती। बिना किसी औषधि नियमित साफ सफाई एवं स्वच्छता रखने से बच्चों में इन कृमियों के संक्रमण होने की संभावना बिल्कुल नहीं रहती है और संक्रमण हो वो भी खत्म हो जाता है।

 




रविवार, 27 मार्च 2011

साइनस का सिरदर्द

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साइनस का  सिरदर्द

 
साइनस हमारे शरीर की खोपड़ी में हवा भरी हुई कैविटी होती हैं जो हमारे सिर को हल्कापन व सांस वाली हवा का नमी युक्त करतेहैं। जब कभी साइनस का संक्रमण हो जाता है तो ये सिरदर्द का भी कारण बनते हैं। परंतु सारे सिरदर्द का कारण साइनस ही नहीं होते, कई बार मरीज को साइनस के दर्द की बजाय माइग्रेन या तनाव वाला सिरदर्द हो सकता है।
  माइग्रेन सिरदर्द से चेहरे की नसें प्रभावित हो जाती हैं। जो कि माथे
, गालों और जबड़े को जाती हैं। इसकी वजह से साइनस के पास दर्द होता है। जब नाक व साइनस का संक्रमण होता है तो  लक्षण आंखों पर,माथे पर व गालों पर भारीपन महसूस होता है। कई बार तो नाक बंद,थकान, सर्दी के साथ बुखारचेहरे पर सूजन व नाक से पीला या हरे रंग का रेशा भी गिरता है। यद्यपि कई बार यह महत्वपूर्ण बात होती है कि कई सिरदर्द तो लंबे समय से चले आ रहे हैंनजले के कारण होते हैं। इसलिए जब कभी माइग्रेन का ईलाज करे तो साइनस सिरदर्द को जरूर मध्यनजर रखें।
 
साइनस के सिरदर्द में हमें क्या करना चाहिए :- वास्तव में साइनस के संक्रमण होने पर साइनस की झिल्ली में सूजन आ जाती है। सूजन के कारण हवा की जगह साइनस में मवाद या बलगम आदि भर जाता है, जिससे साइनस बंद हो जाते हैं। इस वजह से माथे पर, गालों व ऊपर के जबाड़े में दर्द होने लगता है और साइनस सिरदर्द का कारण बनते हैं।
  सिरदर्द आगे झुकने व लेटने से बढ़ जाता है। इस सिरदर्द को कम करने के लिए साइनस की सूजन को कम करके मवाद व बलगम को निकाला जाता है। साइनस सिरदर्द को कम करने के निम्र उपाय हैं :- जैसे -
 
  1.
भांप : बारी-बारी
  दोनों नाक साफ करने के बाद एक बर्तन या स्टीमर में लगभग
300 मिलीलीटर
  पानी लेकर उबलने तक गर्म करे। जब उबलने लगे तो डॉक्टर द्वारा बताई गई दवा उचित मात्रा में डालकर
पंखे व कूलर बंद कर कपड़ा ढककर नाक व मुंह से
लंबे-लंबे सांस आठ से दस मिनट तक लें। इसके बाद बीस मिनट तक हवा में न जाएं।

  2
सिकाई :- गर्म कपड़ा या फिर गर्म पानी की बोतल गालों के ऊपर रखकर सिकाई करनी चाहिए। यह प्रक्रिया लगभग एक मिनट के लिए दिन में तीन बार करनी चाहिए। इससे काफी आराम मिलता है।
  3
नाक की सफाई :- नाक की सफाई करने से भी सिरदर्द कम करने में काफी मदद मिलती है। माना जाता है कि नाक की झिल्ली पर अनेक प्रकार के वायरस, बैक्टीरियां, फफूंदी, धूल-मिट्टी के कणएलर्जी करने वाले कण व धूंआ आदि के कण होते हैं, जिनको
  साफ करने से बीमारी को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। नाक को साफ करने के लिए आधा गिलास गुनगुना पानी लेकर उसमें एक च
?मच मीठा सोडा या एक चुटकी नमक मिलाना चाहिए, फिर एक हाथ की हथेली में लेकर नाक में पानी खिंचकर आगे निकाल देना चाहिए। इस प्रक्रिया से नाक बिल्कुल साफ हो जाते हैं तथा सिरदर्द में आराम मिलता है।
  4
दवाईयां :- कुछ एक दवाईयां जो सामान्यतौर पर दुकानों पर मिलती हैं जैसे पैरासिटामोल, निमुस्लाईड, बरूफैन, डाईक्लोफिनेक आदि,सिरदर्द ठीक करने के लिए ली जा सकती हैं। सिर में भारीपन को ठीक करने के लिए एंटीहिस्टामिन व डिकन्जैसटंटस व नाक में स्प्रे आदि इस्तेमाल किया जा सकता है।
    साइनस सिरदर्द अगर उक्त सावधानियों आदि से ठीक न हो तो डॉक्टर से जांच करवानी चाहिए ताकि सिरदर्द का सदा के लिए ईलाज हो सके और अगर सिरदर्द आदि का कारण माइग्रेन हो तो उसका दवाईयां आदि लेकर ईलाज करवाना चाहिए।
 
एक्स-रे, सिटी स्कैन व एलर्जी टेस्ट आदि करवाकर यदि कोई नाक की हड्डी एवं साइनस की बीमारी आती है तो उस मरीज को दूरबीन का ऑपरेशन अवश्य करवाना चाहिए।

 



मंगलवार, 22 मार्च 2011

पसीना : गर्मी की बड़ी समस्या जड़ी-बूटी द्वारा उपचार



गर्मियों में कई लोगो को पसीना बहुत आता है तथा वे इसकी वजह से बहुत परेशान रहते हैं ।
कई लोगों के पसीने में बहुत बदबू आती है जिसके कारण उनके पास कोई बैठना नहीं चाहता । चूकि अब गर्मी शुरू होने वाली है इसलिए अगर ऐसे व्यक्ति थोडी सी सावधानी बरतें तो उन्हे पसीने से होने वाली परेशानी से राहत मिल सकती हैं । उन्हे केवल कुछ आसान व सरल उपाय करने हैं

एक बार पहने हुए वस्त्रों को बिना धोए अलमारी में न रखें।

बिना धुले वस्त्रों को अलमारी में रखने पर दुर्गन्ध पैदा करने वाले बैक्टीरिया सक्रिय होकर वस्त्रों में दुर्गन्ध पैदा कर देते हैं।

शरीर की साफ-सफाई का विशेष ख्याल रखना चाहिए।

नीम युक्त साबुन का नहाते वक्त इस्तेमाल करें तो बेहतर रहेगा।

जहाँ तक हो सके कड़ी धूप से बचें।

वस्त्र ऐसे पहनें जो शरीर से चिपके हुए न हों क्योंकि तंग वस्त्रों में ज्यादा पसीना आता है और वाष्पीकरण सही ढंग से नहीं हो पाता है जिससे कपड़ों से दुर्गन्ध आने लगती है।

सिन्थेटिक वस्त्र न पहनकर सूती वस्त्र पहने तो ज्यादा ठीक रहेगा।

तली-भुनी व मसालायुक्त चीजें न खाएँ।

मौसमी फलों का सेवन करें।
जड़ी-बूटी द्वारा उपचार 


बबूल के पत्ते और बाल हरड़ को बराबर-बराबर मिलाकर महीन पीस लें। इस चूर्ण की सारे शरीर पर मालिश करें और कुछ समय रूक-रूक कर स्नान कर लें। नियमित रूप से यह प्रयोग कुछ दिनों तक करते रहने से पसीना आना बंद हो जाएगा।


पसीने की दुर्गन्ध दूर करने के लिये बेलपत्र के रस का लेप शरीर पर करना चाहिए।


अडूसा के पत्रों के रस में थोड़ा शंख चूर्ण मिलाकर शरीर पर लगाने से शरीर से पसीने की दुर्गन्ध दूर हो जाती है।




मंगलवार, 8 मार्च 2011

सायटिका:-कारण व निदान

सायटिका
कमर से संबंधित नसों में से अगर किसी एक में भी सूजन आ जाए तो पूरे पैर में असहनीय दर्द होने लगता है, जिसे गृध्रसी या सायटिका (Sciatica) कहा जाता है। यह तंत्रिकाशूल(Neuralgia) का एक प्रकार है,जो बड़ी गृघ्रसी तंत्रिका (sciatic nerve) में सर्दी लगने से या अधिक चलने से अथवा मलावरोध और गर्भ, अर्बुद (Tumour) तथा मेरुदंड (spine) की विकृतियाँ, इनमें से किसी का दबाव तंत्रिका या तंत्रिका मूलों पर पड़ने से उत्पन्न होता है। क्वचित तंत्रिकाशोथ (Neuritis)से भी यह होता है।
  पीड़ा नितंब संधि (Hip joint) के पीछे प्रारंभ होकर,धीरे धीरे तीव्र होती हुई, तंत्रिका मार्ग से अँगूठे तक फैलती है। घुटने और टखने के पीछे पीड़ा अधिक रहती है। पीड़ा के अतिरिक्त पैर में शून्य(numbness)भी होती है। तीव्र रोग में असह्य पीड़ा से रोगी बिस्तरे पर पड़ा रहता है। पुराने (chronic)रोग में पैर में क्षीणता और सिकुड़न उत्पन्न होती है। रोग प्राय: एक ओर तथा दुश्चिकित्स्य होता है। उपचार के लिए सर्वप्रथम रोग के कारण का निश्चय करना आवश्यक है। नियतकालिक (periodic) रोग
में आवेग के २-३ घंटे पूर्व क्विनीन देने से लाभ होता है। लगाने के लिए ए. बी. सी. लिनिमेंट तथा खाने के लिए फिनैसिटीन ऐंटीपायरीन दिया जाए। बिजली
, तंत्रिका में ऐल्कोहल की सुई तथा तंत्रिकाकर्षण (stretching)से इस रोग में लाभ होता है। परंतु तंत्रिकाकर्षण अन्य उपाय बेकार होने पर ही किया जाना चाहिए।
बड़ी उम्र में हड्डियों तथा हड्डियों को  जोड़ने वाली चिकनी सतह के घिस जाने के कारण ही व्यक्ति इस समस्या का शिकार बनताहै।
सायटिका का आगमन
आमतौर पर यह समस्या 50 वर्ष की उम्र के बाद ही देखी जाती है। व्यक्ति के शरीर में जहां-जहां भी हड्डियों का जोड़ होता है, वहां एक चिकनी सतह होती है जो हड्डियों को जोड़े रखती है। जब यह चिकनी सतह घिसने लगती है तब हड्डियों पर इसका बुरा असर होता है जो असहनीय दर्द का कारण बनता है।
सायटिका की समस्या मुख्य रूप से रीढ़ की हड्डी व कमर की नसों से जुड़ी हुई है जिसका सीधा संबंध पैर से होता है। इसीलिए  सायटिका में पैरों में तीव्र दर्द उठने लगता है।
कारण
नसों पर दबाव का मुख्य कारण प्रौढ़ावस्था में हड्डियों तथा चिकनी सतह का घिस जाना होता है। मुख्य रूप से इस परेशानी का सीधा संबंध उम्र के साथ जुड़ा है। अधिक मेहनत करने वाले या भारी वजन उठाने वाले व्यक्तियों में यह परेशानी अधिकतर देखी जाती है क्योंकि ऐसा करने से चिकनी सतह में स्थित पदार्थ पीछे की तरफ खिसकता है। ऐसा बार-बार होने से अंतत: उस हिस्से में सूखापन आ जाता है और वह हिस्सा घिस जाता है।
क्या होता है? सायटिका में
सायटिका में पैरों में झनझनाहट होती है तथा खाल चढ़ने लगती है। पैर के अंगूठे व अंगुलियां सुन्न हो जाती हैं। कभी-कभी कुछ पलों के लिए पैर बिल्कुल निर्जीव से लगने लगते हैं। इस समस्या के लगातार बढ़ते रहने पर यह आंतरिक नसों पर भी बुरा असर डालना प्रारंभ कर देती है।
निदान
इस प्रकार के रोग का निदान एक्स-रे से संभव नहीं। इसलिए एमआरआई कराना आवश्यक होता है। उपचार की बात करें तो सही उपचार पद्धति से लगभग 85-90 प्रतिशत लोगों को सायटिका से निजात मिल जाती है। फिर भी इसमें पूरी तरह ठीक होते-होते 4 से 6 हफ्तों का समय लग ही जाता है।
बड़े पैमाने पर 4-5 दिनों के पूर्ण शारीरिक आराम और दवाओं व इंजेक्शन की मदद से दर्द नियंत्रण में लाया जा सकता है। अगर बहुत ज्यादा दर्द हो रहा हो तो स्टेराइड का उपयोग भी करना पड़ता है और कभी-कभी कमर के अंदर तक इंजेक्शन द्वारा दवाओं को पहुंचाना पड़ता है।

इसके अलावा कसरत और फिजियोथैरेपी से भी बहुत आराम मिलता है। इस तरह की तमाम प्रक्रियाओं के बाद भी अगर दर्द की समस्या लगातार बनी रहे तो फिर व्यक्ति के पास एकमात्र विकल्प ही शेष रह जाता है और वह है-ऑपरेशन। ऑपरेशन को लेकर आपको घबराने की जरूरत नहीं है।
नई चिकित्सा पद्धति अर्थात दूरबीन या माइक्रोसर्जरी से किए गए ऑपरेशन के बाद मरीज दूसरे दिन ही घर जा सकता है और दैनिक कार्य कर सकता है। इस चिकित्सा पद्धति में एक छोटा सा ही चीरा लगाना होता है जिससे मरीज को अस्पताल में सिर्फ एक-दो दिन ही रुकना पड़ता है।
बचाव
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रकृति के नियम को कभी बदला नहीं जा सकता। अर्थात बढ़ती उम्र पर किसी भी व्यक्ति का बस नहीं है। अत: उम्र से जुड़ी सायटिकाजैसी समस्या को भी रोक पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। हां, लेकिन इसके लिए सुरक्षात्मक उपाय जरूर अपनाएं जा सकते हैं, जिससे कि समस्या विकराल रूप न धारण कर सके।
लंबे समय तक एक ही जगह पर बैठे रहने से बचें।
हर आधे-एक घंटे में कुछ देर के लिए खड़े रहने की कोशिश करें। इससे कमर की
हड्डियों को आराम मिलता है।
झुककर भारी वस्तुओं को उठाने की आदत से भी बचने की कोशिश करें। इससे रीढ़ की हड्डियों के जोड़ों पर अधिक जोर पड़ता है।
भारी वजन उठाकर लंबी दूर तय न करें। अगर ऐसा करना जरूरी हो भी तो बीच-बीच में कहीं बैठकर थोड़ी देर के लिए आराम कर लें।
अगर आपका पेशा ऐसा हो कि आपको घंटों कुर्सी पर बैठा रहना पड़ता हो या कंप्यूटर पर काफी देर तक काम करना पड़ता हो तो कुर्सी में कमर के हिस्से पर एक छोटा सा तकिया लगा लें व सीधे बैठने की कोशिश करें।
चिकित्सक से सलाह लेकर कमर और रीढ़ की हड्डी से संबंधित कसरत नियमित रूप से करें।
चिकित्सक की सलाह अनुसार कमर का बेल्ट भी उपयोग कर सकते हैं। याद रखें कि लंबे समय तक बेल्ट पहनने से कमर का स्नायु तंत्र कमजोर होता है। इसलिए बेल्ट का उपयोग यदा-कदा ही करें।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

थैलीसीमिया-लक्षण,बचाव एवं सावधानी

लक्षण
सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं।
बचाव एवं सावधानी
थेलेसीमिया पी‍डि़त के इलाज में काफी बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता होती है। इस कारण सभी इसका इलाज नहीं करवा पाते, जिससे १२ से १५ वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। सही इलाज करने पर २५ वर्ष व इससे अधिक जीने की आशा होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, रक्त की जरूरत भी बढ़ती जाती है।
• विवाह से पहले महिला-पुरुष की रक्त की जाँच कराएँ।
• गर्भावस्था के दौरान इसकी जाँच कराएँ
• रोगी की हीमोग्लोबिन ११ या १२ बनाए रखने की कोशिश करें
• समय पर दवाइयाँ लें और इलाज पूरा लें।
विवाह पूर्व जांच को प्रेरित करने हेतु एक स्वास्थ्य कुण्डली का निर्माण किया गया है, जिसे विवाह पूर्व वर-वधु को अपनी जन्म कुण्डली के साथ साथ मिलवाना चाहिये। स्वास्थ्य कुंडली में कुछ जांच की जाती है, जिससे शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़े यह जान सकें कि उनका स्वास्थ्य एक दूसरे के अनुकूल है या नहीं। स्वास्थ्य कुंडली के तहत सबसे पहली जांच थैलीसीमिया की होगी। एचआईवी, हेपाटाइटिस बी और सी। इसके अलावा उनके रक्त की तुलना भी की जाएगी और रक्त में RH फैक्टर की भी जांच की जाएगी।
इस प्रकार के रोगियों के लिए कितनी ही संस्थायें रक्त प्रबंध कराती हैं। इसके अलावा बहुत से रक्तदान आतुर सज्जन तत्पर रहते हैं।
शोध और विकास
थैलेसीमिया पर विश्व भर में शोध अनुसंधान अन्वरत जारी हैं। इन प्रयासों से ही थैलीसीमिया पीड़ितों के लिए एक दवाई अविष्कृत हुई थी। इस दवाई से बच्चों को अब इंजेक्शन के दर्द को नहीं झेलना पड़ेगा। जल्दी ही भारतीय बाजार में ये दवा आने वाली है, जिसे खाने से ही शरीर में लौह मात्रा नियंत्रित हो जाएगी। असुरां नाम की यह दवा पश्चिमी देशों में एक्स जेड नाम से पहले से ही प्रयोग हो रही है। इससे इलाज का खर्च भी कम हो जाएगा, किंतु इसके दुष्प्रभावों (साइड एफ़ेक्ट्स) में इससे किडनी प्रभावित होने का एक परसेंट खतरा बना रहता है। दिल्ली के गंगाराम अस्पताल के थैलीसीमिया इकाई के अध्यक्ष डॉ. वीरेंद खन्ना के अनुसार भारत में अतिरिक्त लौह निकालने के लिए दो तरीके प्रचलन में हैं। पहले तरीके में डेसोरॉल (इंजेक्शन) के जरिए आठ से दस घण्टे तक लौह निकाला जाता है। यह प्रक्रिया बहुत महंगी और कष्टदायक होती है। इसमें प्रयोग होने वाले एक इंजेक्शन की कीमत १६४ रुपए होती है। इस प्रक्रिया में हर साल पचास हजार से डेढ़ लाख रुपए तक खर्च आता है। दूसरी प्रक्रिया में कैलफर नामक दवा(कैप्सूल) दी जाती है। यह दवा सस्ती तो है लेकिन इसका इस्तेमाल करने वाले ३० प्रतिशत रोगियों को जोड़ों में दर्द की समस्या हो जाती है। साथ ही इनमें से एक प्रतिशत बच्चे गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। ऐसे में नई दवा असुरां काफ़ी लाभदायक होगी। यह दवा फलों के रस के साथ मिलाकर पिलाई जाती है और इसकी कीमत १०० रुपये प्रति डोज है।
मेरु रज्जू ट्रांस्प्लांट
थैलेसीमिया के लिये स्टेम सेल से उपचार की भी संभावनाएं हैं। इसके अलावा इस रोग के रोगियों के मेरु रज्जु (बोन मैरो) ट्रांस्प्लांट हेतु अब भारत में भी बोनमैरो डोनर रजिस्ट्री खुल गई है। मैरो डोनर रजिस्ट्री इंडिया (एम.डी.आर.आई) में बोनमैरो दान करने वालों के बारे में सभी आवश्यक जानकारियां होगी जिससे देश के ही नहीं वरन विदेश से इलाज के लिए भारत आने वाले रोगियों का भी आसानी से उपचार हो सकेगा। यह केंद्र मुंबई में स्थापित किया जाएगा। ऐसे केंद्र वर्तमान में केवल अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशो में ही थे। ल्यूकेमिया और थैलीसीमिया के रोगी अब बोनमैरो या स्टेम सेल प्राप्त करने के लिए इस केंद्र से संपर्क कर मेरुरज्जु दान करने वालों के बारे में जानकारी के अलावा उनके रक्त तथा लार के नमूनों की जांच रिपोर्ट की जानकारी भी ले पाएंगे। जल्दी ही इसकी शाखाएं महानगरों में भी खुलने की योजना है।