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सोमवार, 31 जनवरी 2011

डायबिटीज टेस्ट

ग्लायकोसालेटेड हीमोग्लोबीन टेस्ट - सबसे महत्वपूर्ण टेस्ट बन कर उभरा है। यह डायबिटीज की डायगनोसिस एवं कंट्रोल को जानने का सबसे अच्छा तरीका है। इसकी रिडिंग यानि 7 प्रतिशत कम है तो डायबिटीज का नियंत्रण ठीक चल रहा है। इसे हर तीन महीने पर कराना जरूरी माना गया है। नई तकनीक से मात्र 5 मिनट में इस टेस्ट की रिपोर्ट मिल जाती है।
है।

ग्लायकोसाइलेटेड हीमोग्लोबीन  सबसे अच्छा टेस्ट है नियन्त्रण जानने के लिए

डायबिटीज में ब्लड शुगर की मात्रा रोज ही बदलती रहती है। केवल एक अध्ययन से इसका सही जायजा लेना मुश्किल होता है लेकिन ग्लायकोसाइलेटेड हीमोग्लोबीन एक ऐसा टेस्ट होता है जिससे एक ही अध्ययन में ब्लड शुगर का नियंत्रण पता चल जाता है। आजकल अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन ने इसे हर तीन माह पर कराने का निर्देश दिया है। भारत में जागरुकता के अभाव में ऐसा नहीं हो पाता लेकिन यह आवश्यक है। अगर आपका ब्लड शुगर सात से आठ प्रतिशत से बीच है तो संतोषजनक और आठ से दस प्रतिशत होने पर मामला गम्भीर है। यह टेस्ट थोड़ा महंगा जरूर है लेकिन जब डाक्टर इसे करने को कहें तो इसे अवशय करा लें

क्या है माइक्रोअल्बुमिनुरिया?

-'माइक्रल टेस्ट' एक स्क्रीनींग टेस्ट है, इसे करना बहुत सरल है।
 -'रिएजेंट स्ट्रीप' माइक्रल टेस्ट द्वारा इसे सधारणतः किया जाता है। पेशाब में अल्बुमीन(प्रोटीन) की कितनी मात्रा निकल रही है, यही इसमें देखा जाता है।
-24 घंटे में सामान्य आदमी में 30 मि.ग्रा. से कम अल्बुमीन पेशाब में निकलता है। यदि आपके पेशाब में 24 घंटे में 30 मि.ग्रा. से ज्यादा अल्बुमीन जा रहा है तो माइक्रल टेस्ट पॉजीटीव आता है। स्ट्रीप टेस्ट से यदि पॉजीटिव रिजल्ट आता है तो इसे अन्य स्पेशिफिक जाँच द्वारा निश्चित करना जरुरी है।
-यदि आपको माइक्रोअल्बुमिनुरिया की अवस्था शुरु हो गयी है तो तुरंत सावधानी की जरुरत है। इस समय  से भी यदि इन उपायों का आप अनुसरण करें तो किडनी फेल्यर से बचने की काफी संभावना रहती है।
छह माह में तीन बार किये गए पेशाब की जाँच में यदि दो बार माइक्रोअल्बुमिनुरिया मिले तभी यह निश्चित होता है कि यह पैथोलाजिकल है। केवल एक बार स्कारात्मक हो तो यह समान्य कारणों से भी हो सकता है।
-माइक्रोअल्बुमिनुरिया का पता होते ही खास उपायों के द्वारा इस अवस्था को रोका जा सकता है। इस टेस्ट  के साकारात्मक होने का मतलब है कि आपको भविष्य में किडनी की खराबी की संभावना है।
क्लिनिकल  तौर पर पेशाब जांच में माइक्रो- अल्बुमिनुरिया की जांच से यह पता चलता है कि गुर्दो में नेफरोपैथी की अवस्था होने जा रही है । यदि पेशाब में 24 घंटे में 30 मि ग्रा से 300 मि. ग्रा. तक अल्बुमीन निकले तो इसे माइक्रो अल्बुमिनुरिया कहते हैं। सामान्य आदमी में 30 मि.ग्रा से कम अल्बुमीन 24 घंटे में पेशाब में निकलता है। यदि 24 घंटे में 300 मि. ग्रा. से ज्यादा अल्बुमीन निकले तो इसे क्लिनिकल अल्बुमीनुरिया कहते हैं
क्लिनिकल अल्बुमीनुरिया यह भी बताती है कि मरीज को हृदयआघात होने की संभावना ज्यादा हो गयी है। इसीलिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि टाईप- टू मधुमेह रोगी को माइक्रो-अल्बुमीनुरिया के स्टेज में जांच द्वारा पता कर लिया जाये और जरुरी बचाव के उपाय शुरू कर दिये जायें।
अल्बुमीनुरिया की जांच
पेशाब के सामान्य जांच में यदि अल्बुमीन नहीं है तो माइक्रो अल्बुमीनुरिया की जांच माइक्रल टेस्ट द्वारा करावें। (सुबह का पेशाब इस जांच के लिए उत्तम है। )


इस तरह की बीमारी को टाइप-1 से अलग करने के लिए निम्नलिखित जाँचों को किया जाता है।
1. सी-पेपटाइड लेवेलः
यह टाइप-2 वैराइटी नें 0.6 पीमोल/एम.एल. से ज्यादा होता है।
2. सीरम इंसुलीन लेवेलः
यह टाइप-2 में ज्यादा होता है।
3. गैड 65 एन्टीबाऑडी टेस्टः
ऑटोएन्टीबाऑडी टेस्ट टाइप-1 में पोजेटिव एस टाइप-2 में निगेटिव होता है।

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